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मेरे अनुज, अग्रज, मित्रगण

mere anuj, agraj, mitrgan

अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

गोपालकृष्ण रथ

गोपालकृष्ण रथ

मेरे अनुज, अग्रज, मित्रगण

गोपालकृष्ण रथ

और अधिकगोपालकृष्ण रथ

    मेरी मृत्यु के बाद

    मत लिखना शोक कविता

    संपादकों का पत्र-स्तंभ

    मत भर देना अक्षरों से।

    क्या अक्षरों ने

    गुमराह किया

    उन्हें क्यों बागी बनाओगे

    झूठ-सच के खेल में

    तुम चाहते तो ओस की नन्हीं-सी बूँद

    उठाकर ला सकते थे सूर्योदय से पहले।

    हमेशा कोहरे में तैरता आदमी

    क्या कभी सोचता है

    बारिश की रात में घर जल सकता है

    तितलियाँ, फूल, आँसू

    भयानक हो सकते हैं

    उजड़ सकते हैं ड्राइंग-खाते का चित्र,

    जन्मदिन की मोमबत्ती

    और दीवार से लटका घास-फूस का घोंसला!

    कर्ण की तक़दीर

    और पार्थ का भोग

    दोनों मेरे नितांत विश्वस्त हैं—

    मुझे जला मत देना

    झूठ-सच के खेल में।

    देखो, मैं हलफ लेकर कहता हूँ,

    श्रीमंदिर का शीर्ष देखते समय मैंने कभी

    सिर से पगड़ी नहीं गिराई

    भींचकर नहीं पकड़ा

    हवा में उड़ते परागों को

    एक 'फू' तक कहने का बड़प्पन मुझमें नहीं है

    गीले गीले स्वर में

    अपने अनुजों, अग्रजों और मित्रों को।

    मैं जकड़े रहूँगा उन्हें हमेशा

    अपने सीने में

    ख़ुद समुद्र तट बनकर

    टूटते चले जाने पर भी

    भींचे रहूँगा उन्हें

    मैं ख़ुद निश्चिंत हो जाने तक

    पूरी तरह विस्तारित हो जाने तक।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विपुल दिगंत (पृष्ठ 120)
    • रचनाकार : गोपालकृष्ण रथ
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2019

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