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मौत के फ़रिश्ते

maut ke farishte

अब्दुल बिस्मिल्लाह

अब्दुल बिस्मिल्लाह

मौत के फ़रिश्ते

अब्दुल बिस्मिल्लाह

और अधिकअब्दुल बिस्मिल्लाह

    अपने एक हाथ में अंगारा

    और दूसरे हाथ में ज़हर का गिलास लेकर

    जिस रोज़ मैंने

    अपनी ज़िंदगी के साथ

    पहली बार मज़ाक़ किया था

    उस रोज़ मैं

    दुनिया का सबसे छोटा बच्चा था

    जिसे दोज़ख़ का पता होता

    ख़ुदकुशी का

    और भविष्य जिसके लिए

    माँ के दूध से अधिक नहीं होता

    उसी बच्चे ने मुझे छला

    और मज़ाक़ के बदले में

    ज़िंदगी ने ऐसा तमाचा लगाया

    कि गिलास ने मेरे होंठों को कुचल डाला

    और अंगारा

    उस ख़ूबसूरत पोशाक के भीतर कहीं खो गया

    जिसे रो-रो कर मैंने

    ज़माने से हासिल किया था

    इस तरह एक पूरा का पूरा हादसा

    निहायत सादगी के साथ वजूद में आया

    और दुनिया

    किसी भयानक खोह की शक्ल में बदलती चली गई

    मेरा विषैला जिस्म

    शोलों से घिरता चला गया

    ज़िंदगी

    बिगड़े हुए ज़ख़्म की तरह सड़ने लगी

    और काँच को तरह चटखता हुआ मैं

    एक कोने में उगी हुई दूब को देखता रहा

    जो उस खोह में हरी थी

    वह मेरे चड़चड़ाते हुए मांसपिंड में

    ताक़त पैदा करती रही

    और आग हो गई मेरी इकाई में

    यह आस्था

    कि मौत के फ़रिश्ते

    सिर्फ़ हारे हुए लोगों से ख़ुश होते हैं

    उनसे नहीं

    जो गंदगी को

    असह्म बदबू के बावजूद

    प्यार करते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेध के बाद (पृष्ठ 17)
    • संपादक : दिविक रमेश
    • रचनाकार : अब्दुल बिस्मिल्लाह
    • प्रकाशन : विक्रांत प्रेस
    • संस्करण : 1981

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