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मातम में शरीक होना चाहता हूँ

matam mein sharik hona chahta hoon

सुदीप बनर्जी

सुदीप बनर्जी

मातम में शरीक होना चाहता हूँ

सुदीप बनर्जी

और अधिकसुदीप बनर्जी

    बिजली के खंभे खड़े हैं सिर झुकाए

    सड़क पर रोशनी सिलसिलेवार उदास है

    मालगाड़ी के आधे घंटे पहले चले जाने के बाद की चुप्पी है

    मैं इस मातम में शरीक होना चाहता हूँ

    प्लेटफ़ॉर्म पर विदाई देते हुए अपने पिता को

    नीले फ़्राॅक वाली छोटी लड़की और अपने

    अफ़सर को लेने आई हुई

    मातहत इकाई

    मैं शरीक होना चाहता हूँ इस मातम में

    फलों से लदे हुए पेड़

    और पेड़ों से आक्रांत बग़ीचा

    मनमाने परिंदों के आसमान के ऐश्वर्य तक बदमिज़ाज

    बेंच में दुबके हुए चेहरे

    और चेहरों में दुबका हुआ कोहरा

    कोहरे से लगातार उलझती हुई धूप

    धूप से हिफ़ाज़त करती हुई आँखें

    मैं इस मातम में शरीक होना चाहता हूँ...

    दूकानों में ख़रीद करती हुई महिलाएँ

    गैलरी से झाँकती हुई लड़कियाँ

    बस से उतरती हुई भीड़

    सड़क के बाईं ओर चलती हुई भीड़

    मैं भी सड़क के बाईं ओर चलना चाहता हूँ

    और इस मातम में शरीक होना चाहता हूँ

    मैं सिर झुकाए खड़ा रहना चाहता हूँ

    किसी को विदा देना चाहता हूँ

    किसी और का स्वागत करना चाहता हूँ

    बग़ीचे में ग़ाफ़िल होना चाहता हूँ

    मन-पसंद चीज़ें ख़रीदना चाहता हूँ

    बस स्टॉप पर उतरना चाहता हूँ

    सड़क के बाईं ओर चलना चाहता हूँ

    मैं अपनी नागरिकता वापिस चाहता हूँ

    इस मातम में शरीक होना चाहता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 29)
    • रचनाकार : सुदीप बॅनर्जी
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2005

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