मर्लिन मुनरों के कानों की बालियाँ
marlin munron ke kanon ki baliyan
इस भवन में काठ की कुर्सियाँ
पेड़ों को ही नहीं,
पक्षियों, पशुओं और मनुष्यों तक को
यहाँ तक कि उनके सबसे सुंदर सपनों को भी खा जाती हैं
अटेरन के चारों तरफ़ लिपटी हवाएँ
चिढ़ाती हैं जब-तब
लोकतंत्र की भुरभराती दीवारों को
किसी वीथिका में टूटे पड़े होंगे
संध्या के सुहाने संवाद
और उदास गिरी होंगी
आत्मदर्प की अट्ठनियाँ
लोहे की लगाम चबा रहे होंगे
किसी अँधेरे कक्ष में
सर्वोच्च न्याय के लिए रखे गए
काठ के टट्टू
हतप्रभ कुर्सियाँ प्रफुल्लित होंगी
बिच्छुओं की छाया के नीचे
मर्लिन मुनरों के कानों की बालियाँ
तलाशती प्रजा की आँखों में चमक देखकर!
- रचनाकार : त्रिभुवन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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