सार्वजनिक उद्यान की निजी कविता
sarwajnik udyan ki niji kawita
दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
dilip Purushottam chitre
सार्वजनिक उद्यान की निजी कविता
sarwajnik udyan ki niji kawita
dilip Purushottam chitre
दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
और अधिकदिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
1
उद्यान के गुलाबों के विस्फोट सुनते हुए, पूरी ऋतु में
बच्चों की चहचहाहट गेंद हवा ही में थी कि
पकड़ी गई। घास का बढ़ना सुना रात में
कुंद हवाओं में क्वचित। एकाध मेघ जैसे जाएँ मन के ऊपर से
और बादल आए घिर कर। संदिग्ध पेड़ों की सरसराहट
अंजुरीनुमा कानों में; जैसे पानी पर लिखे हुए रंग
पत्तों के। सार्वजनिक उद्यान की सार्वजनिक ऋतुएँ
और हरेक फूल का निजी शिशिर, और बसंत
२.
पतली पीली तरल मोमबत्तियों की ज्योतियाँ
पानी सरीखे अँधेरे में जैसी खिलती हैं
सिहरते, सिहरते। वैसे फूल। वैसी पलकें
जलती ज्योतियों की, लंबी नीलधूसर आँख को ढँकती है
मोम में उभर आई हुई। मोम के आँसू ढुलकते हैं
उबलकर आँखों तले। फिर से पैरों से लगकर सो जाते हैं
बेढंग बुझती जा रही आँखें, वैसे फूल।
ईश्वरी खुरपी खोदती है नीचे की मिट्टी में
पतझड़ के मौसम में ही आगामी ऋतु का आवर्तन
३.
मँडराते आते हैं पीले पत्ते फिर से मिट्टी पर
वनस्पतियों के नहीं होते हैं दूसरे आँसू, प्राणिज
आँसुओं जैसे ऋतुओं के पार के; उनकी नहीं होती हैं आँखें
रोने के लिए। कुत्ता और गुलाब इन दोनों में सूक्ष्म फ़र्क़
इतना ही—उद्यान के आदमी की समझ में आना है।
अख़बार के कागज़ फैलाकर आसमान के नीचे
वह पढ़ा-लिखा कबूतर-सा बैठा रहता है
अपने चश्मे के उस पार की हरी नीली दुनिया को देखते हुए
४.
सोच रहा है एक-से-एक कुशल मालियों के बारे में
ईश्वर को छोड़ कर। प्रतिभावान बागवानों की
कैंची काटती है मेहंदी में हिरन और हिरन के
चमड़े का उपयोग करता है ध्यानस्थ बैठने के लिए बागवान
यदि कुशल हो तो इस्तेमाल करता है ऋतु की ही खुरपी
मन-चाहा कुरेदने के लिए। पेड़ों को प्रत्यक्ष
स्पर्श भी न करते हुए। अख़बार पर बैठकर
उसकी तशरीफ के नीचे चुपचाप, मोटे टाइपों में
विस्फोट होते हैं एटमबमों के। जब वह सुनता है गुलाब
५.
सार्वजनिक उद्यान के होते हैं कई उपयोग
जैसे प्राचीन युग में होते थे सार्वजनिक अरण्यों के
उद्यान में तप करना, नाचना, भोजन करना
या इश्क करना। उद्यान एक पृष्ठभूमि होता है
बहुत कुछ सुविधाजनक, ऐसे कई व्यापारों के लिए।
उद्यान में पढ़ें कालिदास या एअरोडाइनामिक्स,
किसी भी ऋतु में। उसे फूल मना नहीं करते।
लेकिन उद्यान के रूप में उद्यान के बारे में सोचना मुश्किल होता है
प्रीतिगीतों में भी, ग़लत पेड़ पर खिलती हैं
ग़लत सलत भावनाएँ। उद्यान होता है सार्वजनिक कविता
६.
एक विशाल प्रच्छन्न निजी खुरपी की।
खोदी हुई मिट्टी पर होते हैं उस खुरपी के निशान।
जड़ें पहचानती हैं उस खुरपी को यथातथ्य।
उद्यान पूर्व की ज़मीन होती है सतत उद्यान के नीचे ही
बीजों की जड़ें बनने पर भी, अचूक रसायन सरीखी
७.
मँडराते आते हैं पीले अख़बार ज़मीन पर।
मोटे टाइपों में खिलता है चेतना का विस्तार
कागज़ी और मानवी ऋतुओं में। चश्मा रक्षा करता है आँखों की
विश्व से—उद्यान से भी। चश्मे पीछे के आँसू
होते हैं मोम जैसे गर्म। दिन-ब-दिन आदमी के
पैर बेढंगे होते हैं जैसी आँखें जलकर आती हैं
दर्शन के घात में, अँधेरे को गहराते हुए।
विविध रंगों से जलते हुए मौन उद्यान पर
आँखें झुक जाती हैं—गुलाब के डंठल पर
जल उठते हैं प्राण। निश्चल और प्रज्वलित रात में
जब निष्पाप विदूषक—जैसे खड़े होते हैं
पेड़ उद्यान के। आते हैं घास पर अख़बारवाले
और सहसा सीधे हो जाते हैं गुलाब कविता के।
- पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 50)
- संपादक : चंद्रकांत पाटील
- रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
- प्रकाशन : साहित्य भंडार
- संस्करण : 2014
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.