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डरा हुआ आदमी

Dara hua adami

कुमार विकल

कुमार विकल

डरा हुआ आदमी

कुमार विकल

और अधिककुमार विकल

    लाल ईंटों वाली विशाल इमारत के सामने खड़ाएक आदमी

    कुछ इस तरह सोचता है

    कि इन दीवारों के पार शायद कोई बोधि वृक्ष होगा।

    और जब वही आदमी उस इमारत से बाहर आता है

    तो ज़ोर से चिल्लाता है

    कि अस्पतालों में बोधि वृक्ष नहीं उगते

    और डरे हुए आदमी का कोई मसीहा नहीं होता।

    एक डरा हुमा आदमी जब अस्पतालों में भटकता है

    तो डॉक्टरों की मौखिक सहानुभूति

    या 'ट्रेंक्वलायज़र्स' की बैसाखियाँ लेकर लौटता है।

    अस्पताल तो केवल मरीचिकाएँ हैं

    और नींद की गोलियाँ मात्र सम्भावनाएँ

    डर तो मेरे भीतर एक उगा हुआ पौधा है

    जिसको मेरा सारा परिवेश सींचता है—

    दफ़्तर में बॉस

    घर में परिवार

    कॉफ़ी हॉउस में दोस्त

    पार्टी में प्रतिबद्धता की वर्जनाएँ

    मंडियों में सिमटती चीज़ों की बढ़ रही क़ीमतें

    और सड़क पर हज़ारों लाखों उदास चेहरे।

    इस घातक व्यवस्था में हर पतली त्वचा वाला आदमी अरक्षित है

    देखना तो यह है कि कौन बैसाखियों के सहारे जोता है

    और कौन बिना बैसाखियों के

    अपने नंगे शरीर से किसी सुखद या दुःखद अंत तक जूझता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेद (पृष्ठ 162)
    • संपादक : जगदीश चतुर्वेदी
    • रचनाकार : विनय
    • प्रकाशन : ज्ञान भारती प्रकाशन
    • संस्करण : 1972

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