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मैटिनी शो

maitini sho

चंद्रबिंद

चंद्रबिंद

मैटिनी शो

चंद्रबिंद

जिस भूमि पर हमारा जन्म हुआ

जिस मिट्टी में हम

पले और बढ़े

उसमें मेरे जन्म का अभिप्राय

लोकतंत्र के होने में नहीं

वोट देने भर से है

क्या हमारे जीवन में

एक रात का होना

उतना ही है

जितना रात में जीवन का होना

रात में बारिश का होना

और बारिश में उमस का होना

आदमी ने पहले किताबें बनाईं

और फिर उन किताबों ने हमें आदमी होना सिखाया

संविधान सिर्फ़ एक किताब नहीं है

लोकतंत्र सिर्फ़ एक किताब नहीं है

जबकि आदमी में किताब का होना

उतना ही ज़रूरी है

जितना किताबों में आदमी का होना

अब वे किताबें

कहाँ बिकती हैं

जो पहले बिकती थीं

हमारे शहर के फ़ुटपाथों पर

और वे छात्र!

वे छात्र कहाँ चले गए

जो अक्सर

दिख जाया करते थे

चाय की दुकानों पर

या फिर

किसी सिनेमा हॉल के सामने

मैटिनी शो के इंतज़ार में

वे लड़कियाँ अब कहाँ हैं

जो पढ़ने आती थीं

सुदूर गाँवों से

पैदल चलकर

और शामिल हो जाती थीं

हमारे जीवन में

और हमें ख़बर तक नहीं होती थी

उन सपनों का

क्या हुआ

जो जन्म लेते थे

किसी गाँव की आँखों से

और निकल पड़ते थे

किसी शहर को देख

शहर बनने के लिए

और वे विचार

जिनकी धुरी पर

कभी नाचती थी पृथ्वी

जिससे संभव होती है

ब्रह्मांड की सबसे बड़ी खगोलीय घटना

रात और दिन का होना,

तो क्या?

यहीं से शुरू हुई थी

आदमी के चौक बन जाने की प्रक्रिया

जहाँ विचार

जीवन का पर्याय बनने के बजाय

तमाम पाबंदियों के बावजूद

बिकने वाला तंबाकू भर है

और जिस पर अंकित

वैधानिक चेतावनी को

हर एक व्यक्ति

सेवन से पहले

एक बार पढ़ लेना

अपना नैतिक कर्त्तव्य समझता है

मैं वहाँ खड़ा हूँ

जहाँ से शहर शुरू होता है

मुझे साफ़-साफ़ दिखता है

कैसे लहलहाती फ़सलों की कोख से निकलकर

भागते हैं लोग

उस पैसेंजर ट्रेन के पीछे

जो अब सिर्फ़

अख़बार का एक रद्दी पन्ना है

यह जानते हुए भी कि

शहर उसके लिए कुछ और नहीं

एक चौराहा भर है

जहाँ सपने भूख के इंतज़ार में

रोटी की तरह पकते हैं

और हम?

हम सूअर की शक्ल में

आदमी होने का नाटक करते हैं

जिसे लिखा नहीं जा सकता

जिसे पढ़ा नहीं जा सकता

जिसे सिर्फ़ देखा जा सकता है

उस अबोध बच्चे की तरह

जो यह नहीं जानता

कि बारिश में भीगना

और बारिश से भीगना

दोनों एक नहीं है

मैं अच्छी तरह जानता हूँ

मुझे सुना नहीं जाएगा

मुझे पढ़ा नहीं जाएगा

कोई सिरफिरा

फाड़कर फेंक देगा

मेरी आवाज़ को

रद्दी की टोकरी में

और लिख देगा

मेरी पीठ पर

'देशद्रोही'

मैं क्षमा प्रार्थी हूँ दोस्तो,

मुझसे नहीं लिखी जाएँगी

लिखी नहीं जाएँगी मुझसे

उदात्त प्रेम की अमर कथाएँ

उस रात की

जिस रात में

कविता में झूठ

और झूठ की कविता

किसी कवि के सपने में

फूलती और फलती है

जिसकी तस्करी

अब उसकी मजबूरी नहीं

शौक़ बन गया है

मैं बैठा रहूँगा

इंतज़ार में

उस रात की सुबह के

जिसकी संभावना

कविता में कम

और बाहर ज़्यादा है।

स्रोत :
  • रचनाकार : चंद्रबिंद
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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