औचक

auchak

हरेकृष्ण झा

और अधिकहरेकृष्ण झा

    आजकल सुबह होते ही

    मन मेरा

    औचक रह जाता है

    भरोसा नहीं रहता सोते वक्त

    कि अब फिर कभी सुबह होगी और

    फिर कभी खुली मेरी पलक

    खिच्चा खीरे की फाँक से

    छूटती उससे

    माथ और आँखों पर पानी के छींटो संग

    मेरे रोएँ-रोएँ से

    निशाभाग रात्रि में

    अदरख हुई आँखें बंद ही नहीं होतीं

    एतमाद-सा रहता है कि पल अगर बंद हो गए

    तो डूब जाऊँगा अंधकार में

    नहीं आऊँगा ऊपर फिर कभी

    बिला जाऊँगा सोंस-घड़ियाल के गलफड़ में

    फिर भी किसी किसी तरह आँख

    रात में लग ही जाती है और

    सुबह होते ही

    मन मेरा औचक रह जाता है

    पता नहीं क्यों

    कैसे

    पौ फट ही जाती है नित्य और

    आँखें भी खुल ही जाती है नित्य

    कुछ काली-सी छिले तरबूज की तरह

    निकलती है सुबह और

    उसमें से

    उसके लाल मर्म की तरह निकलते

    नज़दीक आते हैं सूर्य

    पानी के छीटें पढ़ते ही मुँह पर

    ओस भीगी हरी दूब

    हुलसने लगती है प्राण में

    चारों तरफ़ तरबूज के लाल रस की

    बयार चलने लगती है

    सुबह उठने पर गर्म चाय की एक घूँट

    बना देती है मुझे

    भालश्री के घने पेड़ का सौरभपूर्ण

    एक हिस्सा

    और मन मेरा

    और ज़्यादा औचक हो जाता है आजकल।

    लोभ हो गया है समय

    गड़ी रहती है यह बात मन में

    कि जकथक है सब कुछ

    सभी दिनों के लिए

    धरे रहती है मन को यह बात

    लेकिन दिन चढ़ने पर देखता हूँ

    किसी खेत में धान की रोपनी

    और भदई की कटनी किसी खेत में

    एक टुस्से से पत्ता

    पत्ते से फिर कली

    और कली से फूल होता बच्चा

    बार-बार गिरता है

    बड़ा होने के लिए

    जैसे-तैसे बहती हवा

    क्षण भर के लिए ही

    किसी-किसी की हिया भर हँसी

    जीवन को थलकमल की तरह

    रचने के लिए

    लोगों का हाथ-पैर संधानते।

    पर साँस मेरी ज़्यादा ज़ोर से

    चलने लगती है

    प्राण में से एक गर्म लहर

    तलुवे तक आने लगती है

    आजकल

    नित्य नए तरह से

    नए हिसाब से दिन आरंभ करते प्राण मेरे

    औचक रह जाते हैं।

    1.बिला खो जाना

    2. जकथक जहाँ-तहाँ

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैथिली कविताएँ (पृष्ठ 51)
    • संपादक : ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद
    • रचनाकार : हरेकृष्ण झा
    • प्रकाशन : पहल प्रकाशन

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