मैंने कहा, तू कौन है? उसने कहा, आवारगी*
mainne kaha, tu kaun hai? usne kaha, awargi*
गीत चतुर्वेदी
Geet Chaturvedi
मैंने कहा, तू कौन है? उसने कहा, आवारगी*
mainne kaha, tu kaun hai? usne kaha, awargi*
Geet Chaturvedi
गीत चतुर्वेदी
और अधिकगीत चतुर्वेदी
बहुत सारी रातें मैंने काम करके बिताई हैं
लिखते हुए, पढ़ते हुए
हमेशा अकेला ही रहा, इसलिए महज़ ख़ुद से लड़ते हुए
लेकिन मैं याद करता हूँ उन रातों को
जब मैंने कुछ नहीं किया, पैरों को मेज़ पर फैलाकर बैठा
दीवार पर बैठे मच्छर को बौद्ध-दर्शन की किताब से दबा दिया
काँच के गिलास को उँगलियों से खिसका कर फ़र्श पर गिरा दिया,
महज़ यह जानने के लिए कि
चीज़ों के टूटने में भी संगीत होता है।
एक रात बरामदे में झाड़ू लगाया और उसी बहाने आधी सड़क भी साफ़ कर दी
किताबों से धूल हटाने की कोशिश की तो जाना—
साहित्य और धूल में वर-वधू का नाता है
बाक़सम, इस बात ने मुझे थोड़ा विनम्र बनाया
मैंने धूल को साहित्य और साहित्य को धूल जितना सम्मान देना सीखा।
कुछ गोपनीय अपराध किए
तीस साल पुरानी एक लड़की को फेसबुक पर खोजता रहा
और जाना कि पुरानी लड़कियाँ ऐसे नहीं मिलतीं—
शादी के बाद वे अपना नाम-सरनेम बदल लेती हैं।
सीटी बजाते हुए सड़कों पर तफ़रीह की
और एक बूढ़े चौकीदार के साथ सूखी टहनियाँ तलाशीं
ताकि वह अलाव ताप सके।
एक रात जब सिगरेट ख़त्म हो गई तब बड़ी मेहनत से ढूँढ़ा उस चौकीदार को
उसने मुझे पहचान लिया और अपनी बीड़ी का आधा बंडल मुझे थमा दिया।
एक औरत से मैंने सिर्फ़ एक वक़्त की रोटी का वादा किया था
जवाब में दूसरे वक़्त भूखी रहती थी वह
आधी रात मैं उसे कार में बिठाता और शहर से बहुत दूर ढाबे में ले जाता
वह आधी अँगड़ाई जितनी थी, आधी रोटी जितनी, आधी खुली खिड़की जितनी,
आधे लगे नारे जितनी
खाना खाने के बाद हम प्रॉपर्टी के रेट्स पर बहसें करते
और मिट्टी पर मंटो का नाम लिखते थे
एक रात एक पुलिसवाले ने मुझे ज़ोर से डाँटा कि क्यों घूम रहा है इतनी रात को?
मैंने भी उसे चमका दिया कि लोग मुझे हिंदी का बड़ा कवि मानते हैं, तुम ऐसे मुझे डाँट नहीं सकते।
बिफरकर वह बोला, साले, चार डंडे मारूँगा तेरे पिछवाड़े घर जाकर सो जा
मैंने उसके साथ बैठकर तीन सिगरेटें पीं वह इस बात से परेशान था
कि उसका साहब एक नंबर का चमड़ी है
और वह अपनी बेटी को पुलिस में नहीं आने देगा
अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर मुझे घर छोड़ गया।
एक रात जब मैं पैदल भटक रहा था, कुछ कुत्ते भौंकने लगे मुझ पर।
मैंने दोस्तोयेवस्की का एक हार्ड-बाउंड मोटा उपन्यास उन्हें दे मारा
पर कुछ पल बाद ही कुत्ते फिर से भौंकने लगे
मैंने इसे फ़्योदोर की एक और नाकामी मानी
और मन ही मन सोचा :
यह दुनिया माईला... नाम्या ढसाळ का गांडूबगीचा** है।
जिन रातों को मैंने मोटी-मोटी किताबें पढ़ीं,
कुछ कवियों को सराहा, कई पर नाक-भौं सिकोड़ी,
जिन रातों को बैठकर मैंने अपनी कविताएँ सुधारीं, गद्य लिखे—
मैं उन रातों को कभी याद नहीं करता
न ही वे चीज़ें याद आती हैं जो मैंने लिखी हैं—
वे बेशक भूल जाने लायक़ हैं
पर जो चीज़ मैं नहीं भूल पाता, वह है अपनी रातों की आवारगी
न पैसा न दमड़ी, न किताब, न कविता
जब मरूँगा, छाती से बाँध के ले जाऊँगा ये अपनी आवारगी।
और हाँ, जाने कितनी रातें मैंने छत पर गुज़ारी हैं
कभी रेलिंग से टिककर धुआँ उड़ाते कभी नंगी फ़र्श पर चित लेटे
आकाश निहारते
ख़ुद से कहा है बारहा—लोग तुम्हें कितना भी रूमानी कहें गीत चतुर्वेदी
आँसू, गुलाब और सितारे से कभी बेवफ़ाई मत करना
कविता ख़राब बन जाए, वांदा नहीं
पर दिल को इन्हीं तीनों से माँजना—हमेशा साफ़ रहेगा
अंततः ख़ुद कवि को ही करनी होती है
अपनी बेचैनियों की हिफ़ाज़त।
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*मोहसिन अली नक़वी की एक ग़ज़ल की एक पंक्ति।
**मराठी कवि नामदेव ढसाळ के एक कविता-संग्रह का नाम।
- रचनाकार : गीत चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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