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मैं

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सौरभ अनंत

और अधिकसौरभ अनंत

    वक़्त बेहिसाब भटकता है

    हमेशा से एक ख़्वाब-सा

    मेरे शहर की तंग गलियों में

    एक छोटी लकड़ी से टायर चलाता निकलता है

    कभी पतंग के पीछे दौड़ता है

    कभी रेत के घरौंदे बनाकर तोड़ता है

    कभी आसमाँ से गुज़रते बादलों में कुछ ख़्वाब भी जोड़ता है

    फिर उन्ही ख़्वाबों को अपनी चोंच में दबा

    कबूतर बन उड़ जाता है कहीं, खो जाता है

    वक़्त अक्सर

    कुछ सोचता हुआ मिलता है

    बच्चों की शरारत में, लड़कपन की बग़ावत में

    किराए के मकानों में, राशन की दुकानों में

    गली के क्रिकेट में, दफ़्तरों की पार्किंग में

    बस स्टॉप पर

    चाय की गुमटियों में

    बेचारा, बहुत खौलता है चाय के साथ

    कभी मंदिरों में

    बेजान घंटियों की तरह बजता है

    कभी बारिश के दिनों में, दूर तक बहता है

    किसी बच्चे की कश्ती की तरह

    और कभी छत से टपकता है

    मजबूर-सा, आँसू की तरह

    वक़्त बेहिसाब भटकता है

    आजकल, परेशान

    बिना पते की चिट्ठी-सा

    किसी दरख़्त के पीले पत्तों में लटकता है

    कभी चौराहों पर घनी भीड़ में गुम

    हर आदमी को खटकता है

    और कभी कॉफ़ी-हाउस में बैठता है

    अकेला किसी शाइर की तरह

    अक्सर लाइब्रेरी की एक पुरानी किताब में

    अपनी ही कहानी ढूँढ़ता है

    और डायरी में कुछ अधूरा लिख छोड़ता है

    वक़्त बेवजह

    दरिया के किनारे बैठता है शाम को

    और सुबह दूर बादलों से तकता है

    वक़्त किसी बच्चे के खिलौने के बुलबुलों के मानिंद

    बस कुछ देर तक टिकता है

    मैं भी भटकता हूँ आजकल

    वक़्त आजकल मेरे साथ भटकता है

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौरभ अनंत
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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