मैं एक विस्मृत आदमी होगा चाहता था
main ek wismrit adami hoga chahta tha
राजेंद्र धोड़पकर
Rajendra Dhaudapkar
मैं एक विस्मृत आदमी होगा चाहता था
main ek wismrit adami hoga chahta tha
Rajendra Dhaudapkar
राजेंद्र धोड़पकर
और अधिकराजेंद्र धोड़पकर
मैं एक विस्मृत आदमी होना चाहता था
पहले मेरी बहुत से लोगों से पहचान थी,
मैंने उनसे स्मृतियाँ पाईं कविताएँ लिखीं
कविताएँ लिखीं और विद्वज्जनों की सभा में यश लूटा
मेरे अंदर एक विराट चट्टान थी जिसके आसपास पेड़ों पर
बहुत से बंदर रहते थे
जो फल खाया करते थे
मैं जब विज्जनों की सभा से बाहर निकला तो
हवा में ज़हर फैला हुआ था
सारे बंदर उससे मारे गए, मैं बहुत उदास हुआ
और अकेला चट्टान पर बैठा रहा
पेड़ों से हरे पत्ते और आकाश से पारदर्शी
पत्ते मुझ पर झरते रहे
मैंने कहा—मैं एक विस्मृत आदमी होना चाहता हूँ
जब बंदर ही नहीं रहे तो सारे परिश्रम का क्या अर्थ है
मैं पत्तों से पूरा ढका दो कल्पों तक बैठा रहा चट्टान पर
तपती धूप में
किसी समय हवा से नई और स्मृतियाँ ग़ायब हो गईं
किसी युग में पेड़ भी कट गए
एक दिन एक तितली मेरे कंधे पर आकर बैठ गई
उसने कहा-सारे युद्ध समाप्त हो गए हैं
सारी विशाल इमारतें और मोटरकारें आधी
धँसी पड़ी हैं ज़मीन में
सारे अखंड जीव नष्ट हो गए हैं
हवा से नमी और स्मृतियाँ ग़ायब हो चुकी हैं
पीड़ा से ऐंठता मैं पहुँचा बाहर
विद्वज्जनों की सभा में पहुँचा
वहाँ बिना सिर और पंखों वाले लोग बैठे थे
मेरा बटोरा हुआ यश दरियों पर बिखरा पड़ा था
मैंने कहा—मैं एक विस्मृत आदमी होना चाहता था
लेकिन मैं—
लेकिन कोई फ़ायदा नहीं था
उन लोगों के पास कोई स्मृति नहीं थी।
- पुस्तक : दो बारिशों के बीच (पृष्ठ 30)
- रचनाकार : राजेंद्र धोड़पकर
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 1996
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