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मैं और ख़ाली चा की प्याली

main aur khali cha ki pyali

प्रभाकर माचवे

प्रभाकर माचवे

मैं और ख़ाली चा की प्याली

प्रभाकर माचवे

और अधिकप्रभाकर माचवे

     

    एक

    आज प्रात ही कुछ धुँधली है, पाटल कलिका की पलकों पर—
    पहली रिमझिम की बूँदें हैं। हरित, स्नात, चेतोहर कोंपल।
    वर्षा का दिन, बादल अनगिन, निरख रहा हूँ मलिन व अमलिन
    एक-एक छिन चुके सुखाशा के साथी, अब हूँ संगी बिन...
    मुझे कौन दे संजीवन? दिल का थाला कब से ख़ाली है
    शून्य दिशाएँ आँधी-लक्षण, मैं हूँ, यह चा की प्याली है।
    बादल सागर की आशीषें, या कि धरित्री का प्रतिऋण है?
    करुण-सजल बातास, अकेलापन क्यों मानव को दारुण है?
    क्यों है दाहक चाह कि मस्ती में कोई सपना झकझोरूँ
    क्यों यह नाहक़ राह सत्य की भाती नहीं, आह दिल चोरूँ?
    खिला बाग़ है, मिला चोंच, भीगे पर सिमटाए दो चिड़ियाँ
    बिजली के तारों पर टप्-टप् टूट रहीं बूँदों की कड़ियाँ!
    आसमान है म्लान कहीं से सुनता हूँ भूपाली की गत...
    क्यों हैं ये दीवारें अधबिच? क्या था गत औ’ कौन अनागत!

    दो

    आधी जागृति, आधा सपना। मन में घुमड़न धूम मची रे
    सरिता तट पर सिकता फैली, रजत चाँदनी नरम बिछी रे!
    गत उत्कट है, भूखी-सी उस पार बज रही दूर नफ़ीरी
    उस गत में है बाट किसी की जोही गई व ठाठ अमीरी
    मैं अपने सूने कमरे में मोटे ग्रंथों में डूबा—
    जूझ रहा हूँ उस मस्तिष्क-प्रधान शिला से, कब ऊबा हूँ?
    क्या है ‘प्रमा', और क्या ‘मोनेड', क्या है यह।
    'अध्यास’, ‘प्रकृति’?
    क्या फ़िख्टे की अलग धारणा? ब्रैडले की मान्यता विकृति?
    सब मरुभूमि प्रायः लगते हैं बूढ़े, कुरूप ये दर्शन-गुरु
    बिस्मिल्ला ही ग़लत, न करते हैं क्यों शुरुआत जीवन से?
    सुरूँ की तरुधारा... ताज मंद-गंध, लोभान' रु अगुरु
    पुरूरवा मुझमें जागा है : विवस्त्र ऊरु तिर रहे मन में...
    ‘छिः’ कोई आकर यों बोला ‘छाया है यह क्षणिक-शरीरी'
    फिर भी आन जुड़े थे होंठों से क्यों होंठ कभी वे शीरीं!

    तीन

    डाली-डाली पर कलियाँ हैं, उन्नत-भाल तमाल, चिर-हरे,
    पर्ण-वर्ण-संचय, फ़व्वारे, युक्लिप्टस के पेड़ छरहरे;
    उपवन ही ठहरा फिर क्यों न अनेकों होंगे वाँ ख़ुश-चेहरे
    पर इस चह-चह के पीछे है क्या कोई गहरे में ‘वह' रे
    जिस की विफल अनंत प्रतीक्षा में बैठा हूँ याँ एकाकी
    माली आता है, सुगंध के रहने देता सुमन न बाक़ी।
    रूप-गंध का समाँ बँधा है, पर सब कुछ लगता जाली है
    किसने पेठ यहाँ अंतरतम की वह सचाई पा ली है?
    दूर दिशाएँ नहा रही हैं, झीना ‘जीवन-पट' छोड़ा है
    बुद्धि-भेद की सीमाएँ हैं, दृष्टि-ज्ञान थोड़ा-थोड़ा है
    कब तक मग़ज़ मारता बैठूँ तुमसे कांट और बोज़ाँ के
    तर्क घुला जाता है बाँके, उधड़ रहे सीने के टाँके...
    जीवन धोखा है, तो हो, यह प्यार कभी जोखों से ख़ाली?
    यह सब एक विराट व्यंग्य है, मैं हूँ, सच, औ’ चा की प्याली!

    स्रोत :
    • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 131)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : प्रभाकर माचवे
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2011

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