Font by Mehr Nastaliq Web

महाराज पृथ्वीराज का पत्र

maharaj prithwiraj ka patr

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

महाराज पृथ्वीराज का पत्र

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त


    स्वस्तिश्री स्वाभिमानी कुल-कमल तथा हिंदुआसूर्य सिद्ध,
    शूरों में सिंह सुश्री शुचिरुचि सुकृति श्री प्रताप1 प्रसिद्ध।
    लज्जाधारी हमारे कुशल युत रहें आप सुद्धर्म-धाम;
    श्रीपृथ्वीराज का हो विदित विनय से प्रेम-पूर्ण प्रणाम॥

    मैं कैसा हो रहा हूँ इस अवसर में घोर-आश्चर्य-लीन,
    देखा है आज मैंने अचल चल हुआ, सिंधु संस्था-विहीन!
    देखा है, क्या कहूँ मैं, निपतित नभ से इंद्र का आज छत्र,
    देखा है और भी, हाँ, अकबर-कर में आपका संधि-पत्र!

    आशा की दृष्टि से वे पितर-गण किसे स्वर्ग से देखते हैं?
    सच्ची वंशप्रतिष्ठा क्षिति पर अपनी वे कहाँ लेखते हैं?
    मर्यादा पूर्वजों की अब तक हम में दृष्टि आती कहाँ है?
    होती है व्योम-वाणी वह गुण-गरिमा आप ही में यहाँ है॥

    खो के स्वाधीनता को अब हम सब हैं नाम के ही नरेश,
    ऊँचा है आपसे ही इस अहो! देश का शीर्ष-देश।
    जाते हैं क्या झुकाने अब उस सिर को आप भी हो हताश?
    सारी राष्ट्रीयता का शिव-शिव! फिर तो हो चुका सर्वनाश!

    हाँ, निस्संदेह देगा अकबर हमसे आपको मान-दान,
    खोते हैं आप कैसे उस पर अपना उच्च धर्मोभिमान?
    छोड़ो स्वाधीनता को मृगपति! वन में दु:ख होता बड़ा है;
    लोहे के पींजड़े में तुम मत रहना स्वर्ण का पींजड़ा है!

    ये मेरे नेत्र हैं क्या कुछ विकृत कि हैं ठीक ये पत्र-वर्ण?
    देखूँ है क्या सुनाता विधि अब मुझको, व्यग्र हैं हाय! कर्ण।
    रोगी हों नेत्र मेरे वह लिपि न रहे आपके लेख जैसी,
    हो जाऊँ देव! चाहे बधिर पर सुनूँ बात कोई न वैसी।

    बाधाएँ आपको हैं बहु विध वन में, मैं इसे मानता हूँ,
    शाही सेना सदा ही अनुपद रहती, सो सभी जानता हूँ।
    तो भी स्वाधीनता ही विदित कर रही आपको कीर्तिशाली,
    हो चाहे वित्त वाली पर उचित नहीं दीनता चित्त वाली॥

    आए थे, याद है, जिस समय वहाँ ‘मान’ सम्मान पाके,
    खाने को थे न बैठे मिस कर उनके साथ में आप आके।
    वे ही ऐसी दशा में हँस कर कहिए, आपसे क्या कहेंगे?
    अच्छी हैं ये व्यथाएँ, पर वह हँसना आप कैसे सहेंगे?

    है जो आपत्ति आगे वह अटल नहीं, शीघ्र ही नष्ट होगी,
    कीर्ति-श्री आपकी यों प्रलय तक सदा और सुस्पष्ट होगी।
    घेरे क्या व्योम में है अविरत रहती सोम को मेघ-माला?
    होता है अंत में क्या प्रकट वह नहीं और भी कांतिवाला॥

    है सच्ची धीरता का समय बस यही है महा धैर्यशाली!
    क्या विद्यु द्वंहि का भी कुछ कर सकती वृष्टिधारा-प्रणाली?
    हों भी तो आपदाएँ अधिक अशुभ हैं क्या पराधीनता से?
    वृक्षों जैसा झुकेगा अनिल-निकट क्या शैल भी दीनता से?

    डूबे हैं वीर सारे अकबर-बल का सिंधु ऐसा गंभीर,
    रक्खे हैं नीर नीचे कमल-सम वहाँ आप ही के एक धीर।
    फूलों-सा चूस डाला अकबर-अलि ने देश है ठौर-ठौर,
    चंपा-सी लाज रक्खी अविकृत अपनी धन्य मेवाड़-मौर!

    सारे राजा झुके हैं जब अकबर के तेज-आगे सभीत,
    ऊँची ग्रीवा किए हैं सतत् तब वहाँ आप ही हे विनीत!
    आर्यों का मान रक्खा, दु:ख सह कर भी है प्रतिज्ञा न टाली,
    पाया है आपने ही विदित भुवन में नाम आर्यीशुमाली॥

    गाते हैं आपका ही सुयश कवि-कृति छोड़ के और गाना;
    वीरों की वीरता को सु-वर मिल गया चेतकारूढ़ राना।
    माँ! है जैसा प्रताप प्रिय सुत जन तू तो तुझे धन्य मानें;
    सोता भी चौंकता है अकबर जिससे साँप हो ज्यों सिरानें॥

    “राना ऐसा लिखेंगे, यह अघटित है, की किसी ने हँसी हैं;
    मानी हैं एक ही वे, बस नस-नस में धीरता ही धँसी है।”
    यों ही मैंने सभा में कुछ अकबर की वृत्ति है आज फेरी;
    रक्खो चाहे न रक्खो अब सब विध है आपको लाज मेरी॥

    हो लक्ष्यभ्रष्ट चाहे कुछ, पर अब भी तीर है हाथ ही में,
    होगा हे वीर! पीछे विफल सँभलना, सोचिए आप जी में।
    आत्मा से पूछ लीजे कि इस विषय में आपका धर्म क्या है;
    होने से मर्म-पीड़ा समझ न पड़ता कर्म-दुष्कर्म क्या है॥

    क्या पश्चाताप पीछे न इस विषय में आप ही आप होगा?
    मेरी तो धारणा हे कि इस समय भी आपको ताप होगा।
    क्या मेरी धारणा को कह निज मुख से आप सच्चा करेंगे।
    या पक्के स्वर्ण को भी सचमुच अब से ताप कच्चा करेंगे?

    जो हो, ऐसा न हो जो हँस कर मन में ‘मान’ आनंद पावें;
    जीना है क्या सदा को फिर अपयश की ओर क्यों आप जावें?
    पृथ्वी में हो रहा है सिर पर सबके मृत्यु का नित्य नृत्य;
    क्या जानें, ताल टूटे किस पर उसकी, कीजिए कीर्ति-कृत्य॥

    हे राजन्, आपको क्या यह विदित नहीं, आप हैं कौन व्यक्ति?
    होने दीजे न हा! हा! शुचितर अपने चित्त में यों विरक्ति।
    आर्यों को प्राप्त होगी, स्मरण कर सदा आपका, आत्मशक्ति;
    रक्खेंगे आप में वे सतत् हृदय से देव की भाँति भक्ति॥

    शूरों के आप स्वामी यदि अकबर की वश्यता मान लेंगे,
    तो दाता दान देना तज कर उलटा आप ही दान लेंगे।
    सोवेंगे आप भी क्या इस अशुभमयी घोर काली निशा में?
    होगा क्या अंशुमाली समुदित अब से अस्तवाली दिशा में?

    दो बातें पूछता हूँ, अब अधिक नहीं, हे प्रतापी प्रताप!
    आज्ञा हो, क्या कहेंगे अब अकबर को तुर्क या शाह आप?
    आज्ञा दीजे मुझे जो उचित समझिए, प्रार्थना है प्रकाश—
    मूँछें ऊँची करूँ या सिर पर पटकूँ हाथ हो के हताश?

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 180)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए