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एक उजड्ड का बयान

ek ujaDD ka byan

वीरू सोनकर

वीरू सोनकर

एक उजड्ड का बयान

वीरू सोनकर

और अधिकवीरू सोनकर

     

    एक

    मेरी राशि का अधिपति एक साँड़ है 
    और माँ कहती है कि मैं उल्टा पैदा हुआ था 

    दोस्त कहते थे 
    कि निरा उजड्ड है अपना साथी

    मेरी उजड्डता उनके लिए एक सुविधा थी पलायन की

    'उजड्डता' की इसी पतली गली से निकल भागी थी 
    मेरी प्रेमिका भी एक दिन

    दो

    दस साल का था तो बहुत बीमार हुआ
    गंगा के किनारे गले मिलवाया गया मुझे 'बरियार के पेड़' से

    अतिशयोक्ति से भरे मेरे रिश्तेदार कहते हैं 
    कि बरियार के पेड़ में होती है 
    बहुत उग्रता 

    यह एक हाथ से जीवन देता है
    तो दूसरे हाथ से जीवन भर की अराजकता।

    तीन

    मुझे ऊँचाइयाँ बहुत पसंद थीं और सबसे ज़्यादा चोट मुझे इनसे ही मिली

    बहुत ऊँचाई पर सवालों की तेज़ हवा से उड़ती है टोपी कई बार
    और ज़मीनी नज़दीकी थोड़ी देर से समझ में आई
    कि यह फिसलने नहीं देती।

    चार

    मैं बहुत दिन अपनी जाति के अहंकार में बौराया रहा 
    बहुत दिन किशोरावस्था में किए सुअर-वध की अपनी वीरता पर

    बहुत दिन ढाँकता रहा 
    इनसे अपनी कायरता के बीज को
    जो कायरों को देख पता नहीं कब पनप गए थे
    मेरे भीतर।

    पाँच

    मेरी विरोधियों से अपील है कि वे बने रहें और बोलते रहें
    मित्रों से चाहता हूँ कि भरोसा करें 
    एक अकेले दौड़ पड़े साँड़ पर, उसकी सींग पर!

    तटस्थों से बस अनुरोध है 
    कि वह उस सूख गए बरियार के पेड़ पर क़तई पानी न डालें, 
    उसे ख़ुद के लिए बचाएँ

    आपकी फ़िजूलख़र्ची से कम हुआ एक चुल्लू पानी
    बढ़ा देगा इस पृथ्वी पर 
    जंग खाया एक बेकार मानवीय चुप्पा कलपुर्जा!

    छह

    मैंने हँसने का एक शहर ढूँढ़ा 
    दिल्ली!

    मौक़ापरस्त मुस्कुराहटों से भरा हुआ
    और रोने के लिए गीली हवाओं के बोझ से भारी हुआ 
    एक शहर बनारस!

    उदास सिर्फ़ अपने घर में हुआ जा सकता है

    बहुत बार अपना शहर देता है
    एक मर रहे साँड़ को नई सींग
    नया जीवन!
    तो मैं बार-बार लौटता रहा अपने जन्म-शहर :
    कानपुर!

    स्वागत-आतुर कानपुर हमेशा मिलता है लाल कपड़े हिलाता हुआ
    साँड़ होने के मायने बताता हुआ!

    सात

    मेरी राशि का राजा 'साँड़' 
    मेरा साथ कभी नहीं छोड़ता 

    मेरे अतीत में आया बरियार का वह पेड़ उगते-उगते 
    अब हो गया है एकदम मेरे बराबर

    हर तेज़ आँधी में अपनी खौरीयाई आवाज़ में 
    मुझसे कहता है
    ओये साँड़, अड़ा रह और तन कर खड़ा रह

    तेरी अड़ियल सींग के निशाने पर बैठी यह दुनिया बहुत मुलायम लगती है 

    इस दुनिया को जितनी मात्रा में हवा, पानी और नींद चाहिए
    उतना ही तू भी मेरी जान!

    आठ

    यह सुनना बहुत प्यारा लगता है
    जब आप धकेल दिए गए हों अपने होने की अनिच्छा से भरे एक गुमनामी कुएँ में

    तब एक साँड़ आपको टिकाता है
    बहुत थोड़ी-सी ज़मीन पर
    और कहता है 
    यह इतनी भी नहीं बचेगी!
    यहीं अड़ा रह और यहीं खड़ा रह

    तेरी ख़ाल इस धरती की सबसे चीमड़ ख़ाल है
    यह चाहनाओं से नहीं बनी
    इसमे घुली है एक बग़ावती पेड़ की साँसें
    और पगलाए साँड़ का गर्म ख़ून।

    नौ

    तेरी यह ख़ाल जब उतरेगी 
    तो दुनिया का सबसे मज़बूत जूता बनकर बरसेगी

    अपराधियों पर नहीं, सिर्फ़ तटस्थों पर!

    तिथियों पर नहीं, 
    वह बरसेगी 'अपने समय' पर बिना लेट हुए!

    प्रेमिकाओं पर नहीं, 
    बरसेगी प्रेमियों की मूर्खताओं पर!

    नेतृत्व पर तो क़तई नहीं
    यह बरसेगी उस जनता पर, 
    जिसने एक साँड़ को रास्ता नहीं दिया

    जिसने राजपथ पर गीदड़ों को गुज़र जाने दिया
    बिना एक अड़ियल हस्तक्षेप किए हुए
    एक अपराधी चुप्पी के साथ!

    दस

    जिस साँड़ के बारे में आप पढ़ रहे हैं या सुन रहे हैं 
    जान लीजिए 
    वह आपका समकालीन है
    और बिना भयाक्रांत किए कहना चाहता है कि चिढ़ उसका स्थायी भाव नहीं है
    उसका भाव है तरलता

    तरलता, जो मौसमों के हिसाब से बदलती है

    ठंड में जमती है
    गर्मी से पिघलती है
    और बारिशों की तरह बहती है 
    वह सत्ताओं के पैर उखाड़ती है 

    अगर उसके पास एक अड़ियल हुंकार है तो यह उसका दोष नहीं है 

    वह इस दुनिया मे भले ही 'उल्टा' आया है
    पर सीधे होने हक़ उसे भी है 

    इस दुनिया को चाहिए 
    कि उसके मुँह न लगे
    उसे रास्ता दे और उसकी सींगों की इज़्ज़त करें!

    स्रोत :
    • रचनाकार : वीरू सोनकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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