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लोहे का स्वाद

lohe ka swad

संजीव गुप्त

संजीव गुप्त

लोहे का स्वाद

संजीव गुप्त

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    ‘लोहे का स्वाद

    लोहार से नहीं

    उस घोड़े से पूछो,

    जिसके मुँह में लगाम है’

    कहा था एक कवि ने

    इतना सहज नहीं है लोहे का स्वाद

    और उसकी ताक़त के बारे में जानना हो

    तो लोहार से ही पूछना पड़ेगा

    जिसके ख़ून का सारा लोहा

    दौड़ता चला आता है उसकी भुजाओं की ओर

    उसके चेहरे की ओर

    यही भरा हुआ है पृथ्वी के गर्भ में

    जो घूमता जाता है उसके साथ-साथ

    और घुमा देता है अपने अदृश्य हाथों से

    कुतुबनुमा की सुई को भी

    दिशाओं का संकेत देने के लिए

    एक तिहाई से ज़्यादा हिस्सा

    लोहे से बना हुआ है इस पृथ्वी का

    और आप कह सकते हैं यह बात

    तभी तो इतना सब कुछ लादे-लादे

    बिना थके घूमती ही जा रही है यह पृथ्वी

    यही है ख़ून को लाल करता हुआ

    अपने सिर पर उठाए ऑक्सीजन को

    शरीर की हर कोशिका तक पहुँचाता

    उसके जीने का आधार

    और यही है यौवन का उजास

    लोहे को काटता है लोहा ही

    सुना होगा आपने भी

    और इतनी आसानी से

    हावी नहीं हो पाती उस पर हवा की नमी

    लड़ता है जूझता है लोहा

    तभी तो कहते हैं हम ऐसे में भी

    कि ज़ंग लग गया लोहे में

    मोर्चा खा गया लोहा

    भुरभुराकर गिरती पपड़ी

    उसकी असमर्थता नहीं है

    अपने शरीर से तोड़ता है लोहा

    अपने गले अंग को

    और फिर तैयार होता है

    अगली लड़ाई के लिए

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजीव गुप्त
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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