वे जो घर लौटने के लिए सैकड़ों मील पैदल सफ़र पर निकले हैं
लेकर पोटली और असबाब
बाल-बच्चे और असमय जर्जर होती लुगाई
वे कौन हैं, क्या हम इस सवाल से छुड़ा सकते हैं पीछा
उन्हें संकठ से उबारने की ज़िम्मेदारी किसकी है
क्या अपने घर लौटने की चाहत करार दी जा सकती है अपराध
व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए बंद किया गया है वाहनों का आवागमन
किया गया है लॉकडाउन
बंद कर दी गई है लोगों की आवाजाही
फिर भी वे ज़िद पर अड़े हैं घर लौटने की
जान जोख़िम में डालकर, अपनी से अधिक दूसरों की
उन्हें घर जाने की जल्दी क्यों है
क्या हम पीछा छुड़ा सकते हैं इस सवाल से
वे क्यों पड़े रह सके उस शहर में
जहाँ उनका कामकाज ठप है
बंद हो गई है दिहाड़ी
व्यर्थ हो गया है फ़िलहाल अपने ही देश में परदेसी बने रहने का कारण
नहीं दिख रही है फिर से कामकाज जल्द शुरू होने की गुंजाइश
ख़त्म हो चुका है रोज़मर्रा के ख़र्च की आय का स्रोत
वे सड़क पर निकल चुके हैं
सड़कें जो अब बदल चुकी हैं जंगल में
और वे लोगों को नज़र आने लगे हैं सहसा हिंस्र पशु
कोराना वायरस के संवाहक
संभावित मानव बम
कैसे समझाया जा सकता था उन्हें कि वे वहीं रहें
जहाँ और जैसे थे, क्योंकि वे अब वहाँ वैसे ही नहीं हैं
जब खुला ख़ंजर लिए घूम रहा हो एक अदृश्य दुश्मन
कौन नहीं चाहता अपनी मिट्टी में ही मिले उसकी मिट्टी
दुनिया से कूच कर जाने से पहले देख ले अपना घर
बाग-बागीचे खेत-खलिहान
जाने-पहचाने चेहरे
क्या यह चाहत अपराध है?
यह आँख चुराने नहीं
तमाशा बनाए जा रहे लोगों को
उनके घर तत्काल सुरक्षित पहुँचाने का समय है
अगर हमारे पास बची हैं सेनाएँ और पुलिस
बचे हैं दूसरों से हमदर्दी रखने वाले लोगबाग
बेहद ज़रूरी है लोगों को उनके घर पहुँचाना और कहना
घर में ही रखो अपने-आपको महफ़ूज़
लौटने वाले बस लौट रहे थे
उनके लिए कोरोना था बस लौटना
कहाँ
अपने घर, अपने लोगों, अपने खेत-खलिहान
परिचित दुनिया, परिचित माहौल
अपनी भूली-बिसरी यादों और तानों तक
भूले स्वाद और संवाद तक
ऐसा नहीं है कि वे
बस वे ही लौटना चाहते हैं
जो किसी दूसरे देश या प्रदेश में फँस गए गए हैं
वे भी लौटना चाहते हैं, जो बाहर नहीं थे
लेकिन सुदूर रह रहे लोगों के अधिक थे बाहर
कई बार पास रहने वालों को पता ही नहीं होता
कि वे पता नहीं कितनी चीज़ों से हो चुके हैं बाहर
उन्हें पता नहीं होता अपना निर्वासन
वे छोटी-छोटी बातों पर निर्वासित कर चुके हैं
पास-पड़ोस को, दोस्तों और अपनों को
निर्वासित कर चुके हैं अपनी जिह्वा से कितने की स्वाद चुपचाप
कितने ही स्वप्न अपनी नींदों से
कितनी ही नींदें अपनी तृष्णाओं के कारण
चारों तरफ़ जब मची है होड़ लौटने की
सहसा लौटना एक मूल्य बन जाता है
वे जो अपनी मज़बूरियों के कारण छोड़ नहीं पाए गाँव
उनके चेहरे पर संतोष की मुस्कान है
जो नहीं छोड़ पाए घर
अब मलाल जाता रहा
हालाँकि अब वे सोचते हैं हम कहाँ लौटें
जब सभी लौट रहे हैं
शहर में लौट रहे हैं पशु-पक्षी, जीव-जंतु
और भरने लगे हैं छलांग चौड़ी सड़कों पर
पक्षियों के कलवर लौट रहे हैं घर-आँगन में
हवाएँ लौट रही हैं नई ताज़गी व अपनी यति-गति व लय के साथ
लौट रहा है बहुत-बहुत-सा ऑक्सीजन
जो पता नहीं कहाँ था
लौट रही हैं माँस-पेशियाँ अपनी जगह पर
दौड़ते-भागते लोगों की विश्राम के दौरान
नींद लौट रही है
लौट रहा है इतमीनान
लौट रही हैं लंबी रातें व लंबे दिन
स्मृतियों इतनी पीछे तक लौट रही हैं कि बूढ़ों को याद आ रहा है बचपन
बेसुरे साधने में जुट गए हैं अपनी लय
आलोचक लिखने लगे हैं कविताएँ
आत्मा लौटना चाहती है मोक्ष की ओर
जर्जर काया पंचतत्व में विलीन होने में खोज रही है सार्थकता।
- रचनाकार : अभिज्ञात
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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