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जिसे वे बचा देखना चाहते हैं

jise we bacha dekhana chahte hain

लक्ष्मण गुप्त

लक्ष्मण गुप्त

जिसे वे बचा देखना चाहते हैं

लक्ष्मण गुप्त

और अधिकलक्ष्मण गुप्त

    घर पहुँचते ही

    मेरी बेटी निकाल लेती है डायरी

    चुनती है कुछ नई

    और कुछ पुरानी भी

    कई बार अक्षर चीन्हने की वजह से

    ठोकती है अपना माथा

    झल्लाती है मेरी लिखावट पर

    और सुनने की ज़िद लिए

    जाती है मेरे बिस्तर पर

    उसकी ज़िद को हवा देता मेरा बेटा

    जो अक्षर चीन्हने की प्रक्रिया में है

    सुनाता है ‘तानपूरा पे चिड़िया’ की कुछ पंक्तियाँ

    कुछ और कविताओं की दो-चार कड़ियाँ

    दोनों समझते हैं मेरी भाषा

    पाते हैं अपना अर्थ

    मेरे साथ प्रवेश करते हैं उस दुनिया में

    जिसे मैं बचाना चाहता हूँ

    जिसे वे बचा देखना चाहते हैं

    वे बचा देखना चाहते हैं

    नदी को काग़ज़ पर नहीं

    ज़मीन पर

    चिड़िया को चिड़ियाघर में नहीं

    पौधों की शाखाओं

    या कि घर के रोशनदान में

    वे रंगों को

    पेंसिल की शक्ल में नहीं

    फूलों और तितलियों में

    बचा देखना चाहते हैं

    वे बचा देखना चाहते हैं

    दरवाज़े पर खड़ा अमरूद का पेड़

    और किसी सुग्गे के लिए

    छोड़ा गया एक पका फल

    वे अपनी बढ़ती हुई उम्र के साथ

    जोड़-घटाकर

    कुछ और दिन, महीने, वर्ष

    बचा देखना चाहते हैं

    दादा-दादी को

    वे बचा देखना चाहते हैं

    गाँव के खेतों में लहलहाती फ़सल

    घासों को ओढ़े हुए

    इठलाती पगडंडी

    वे नहीं चाहते

    कि गिद्धों की तरह

    ग़ायब हो जाएँ कौव्वे भी

    घर में पाला गया कुत्ता

    भूल जाए बिल्लियों को दौड़ाना

    ख़त्म हो जाए

    चूहे-बिल्लियों की आँख-मिचौली

    वे बचा देखना चाहते हैं

    साँप और नेवले का खेल

    मदारी का तमाशा

    बहरूपियों की बिरादरी

    तालाब का पानी

    और पानी में तैरती हुई मछलियाँ

    वे चाहते हैं

    कि हमेशा के लिए बची रहे

    वह कोयल

    जिसके स्वर में स्वर मिलाकर

    समझते हैं वे संगीत का स…

    वे नहीं चाहते

    कि बाँसों के झुरमुट में

    लगा दी जाए आग

    ख़त्म हो जाए

    मुहर्रम और दशहरे के मेले

    राजा-रानी की कहानी

    भूत-प्रेत के क़िस्से

    वे बचा देखना चाहते हैं

    अपने बचपन को

    विज्ञान की बेहद गतिशील सवारी पर

    ताकि उन्हें मंगल की ऊँचाई से

    धरती पत्थर नहीं

    एक दुनिया की तरह दिखे

    वे चाहते हैं

    मैं जब भी कहीं से लौटूँ

    मेरे पास बची रहे

    कविता की डायरी

    और उसमें कुछ कविताएँ…!

    स्रोत :
    • रचनाकार : लक्ष्मण गुप्त
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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