मैं एक भाषा में कविता लिखता हूँ
लेकिन एक भाषा का कवि नहीं हूँ
मैं एक देश में रहता हूँ
लेकिन मैं एक देश का नागरिक नहीं हूँ
दरअसल मैं कवि हूँ
किसी भाषा का नहीं
मैं नागरिक हूँ
किसी देश का नहीं
तुम हक़ अदा करो उनका
जिनके तुम क़र्ज़दार हो
या जिसका नमक खाया है
हम किसी के क़र्ज़दार नहीं
हमने पीर से जूझने में जो उपजा वह खाया है
उर में धारण किए महानतम स्थापनाओं को
हृदय की शिराएँ जुड़ी हुई हैं उन प्रतिबद्ध मस्तिष्कों से
इसलिए जिस भाषा और साहित्य की खाल ओढ़कर
यह दोयम वह श्रेष्ठ
यह चुक गया वह अचूक
यह नहीं होता तो वह नहीं होता
यह बड़ा कि वह बड़ा
यह छोटा कि वह छोटा
करते हुए जो तुम आखेट पर निकले हो
वैष्णव लला
अगर शास्त्रीयता की चादर नोच दी जाए
और भाषा की खाल उतार दी जाए
तो 'रूप' निखर जाएगा
और नीचे यथार्थ भी नहीं मिलेगा।
हूँ मैं निराश अपनी भाषा
अपने देश
और अपने आपसे
मैं नष्ट करूँगा इन सबको और अपने आपको
'हो इसी कर्म पर वज्रपात'
हो इसी उर का रक्तपात
रोक पाओगे?
तोड़ता वही है जो बनाता है
तोड़ेगा वही जो बनाएगा
दरअसल दोस्त, हताश और क्षुब्ध वही होता है
जिसका अपना एक प्रतिसंसार होता है
तानाशाहों और मुनाफ़ाख़ोरों के संसार के बरअक्स
प्रेम में पागल वही होता है जिसका अपना प्रेम होता है
भाषा, देश और देह के दाम्पत्य के बरअक्स
धरती का सीना वही चीरता है
जो बो रहा होता है
आओ मुझे मारो
निराकार करो
मुक्त करो!
- रचनाकार : रवि प्रकाश
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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