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भाषा

bhasha

आस्तीक वाजपेयी

और अधिकआस्तीक वाजपेयी

    पेड़ों का रंग बदल गया है।

    अब वह नहीं रहे जो

    बचपन में थे,

    उनकी भाषा खो गई है।

    और मैं झूम रहा हूँ,

    मुझे पता नहीं पर उम्मीद है कि नितांत अंधकार में

    रोशनी शब्द भर दे।

    मेरी बुआ बिस्तर पर सो रही होंगी,

    उस भाषा में जिसमें उनका वर्णन करते हुए

    फूफा जग रहे होंगे।

    सब अकेले घूम रहे हैं।

    भाषा की भीड़ में।

    माँ थककर मुझे दो ताने सुनाकर

    सो रही है, कुत्ते विचलित हो रहे हैं

    हिंदी की रात गई है।

    ख़ुद की पैरवी करते हुए

    हम थक गए हैं।

    अपनी भाषा की क़ीमत पर

    विद्वान बनने की कोशिश करते हुए भी।

    दो गाएँ घास की बागुड़ से

    पत्तियाँ खाती हैं।

    उन्हें संतरे के छिलके देते हुए

    मैं भूल नहीं पाता कि शायद

    मेरी भाषा के सिवाए

    इन्हें कोई भाषा नहीं आती होगी।

    मेरी बुआ अपने पिता की गोद में

    और मेरे फूफा अपनी माँ की,

    खेल रहे होंगे।

    एक समाज चल सकता होगा

    इस भाषा में।

    खो जाएँगे अपनी बातों में दो बूढ़े लोग

    कोई उनसे बोले

    वह भाषा अब बोली नहीं जाती शहरों में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : थरथराहट (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : आस्तीक वाजपेयी
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

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