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लकड़बग्घा रो रहा है

lakaDbaggha ro raha hai

आनंद बलराम

आनंद बलराम

लकड़बग्घा रो रहा है

आनंद बलराम

और अधिकआनंद बलराम

    लकड़बग्घा रो रहा है—

    आँसुओं में डूब रहे हैं महाद्वीप

    आँसुओं से समुद्रों की परिधि बढ़ रही है

    उसकी प्रजाति को

    हमने तब से सीखा है गाली देना

    जब नहीं थी भाषा भी

    उसके वंशजों को तब से कर रहे हैं तिरस्कृत

    जब नहीं आता था आग भी जलाना

    आज तो मशीनें भी जानती हैं भाषाएँ

    सारी दुनिया को ख़ाक करना भी जान गए हैं

    पर नहीं भूले

    लकड़बग्घे को गाली देना!

    मनुष्यों की दुनिया

    तुम्हारी दुनिया थी

    तुम्हारे मसले

    तुम्हारे घर के मसले थे

    एक मनुष्य ने दूसरे को बुरा कहने के लिए

    क्यों घसीटा

    पृथ्वी पर भोजन के लिए भटकते जीव का नाम

    सोचता होगा लकड़बग्घा

    किसी खोह में अकेला

    कि क्या तुम्हारा शब्दकोश छोटा पड़ गया था

    क्या तुम्हारे मुहावरे क्षीण हो गए थे

    कविता से लेकर तहसील के काग़ज़ों तक

    कितना कुछ है तुम्हारे पास

    क़ब्ज़े को बनाए रखने का जाल

    मेरे हस्ताक्षर के बिना

    जंगल छीने

    किसी सुनवाई के बिना

    अपराधी बनाया

    जीवन के इतिहास में

    कभी हँसने का अवसर नहीं दिया

    फिर भी ऐसे रचा

    जैसे कितनी अट्टहास भरी हँसी हँसता हूँ

    पूछना चाहता है लकड़बग्घा

    ऐसा क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा

    कब आया था तुम्हारे बीच आड़ा

    कब देखा था तुमने मुझे हँसते हुए!

    स्रोत :
    • रचनाकार : आनंद बलराम
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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