रिक्शाबान
rikshaban
एक
रिक्शाबान की सुंदर हँसी
जिसने चौराहे पर दिन में भी चाँदनी बिखेर दी है,
उस पर
पाप की खान जैसी
बड़ी बड़ी अटारियों में रहने
वाले अमीरों के अट्टहास निछावर हैं।
दो
पसीने से बरसाती बना तुम्हारा जीवन
दुर्भाग्य पैदा करने वाले दुष्ट धनिकों के
जीवन की अपेक्षा बहुत अच्छा है
जो अनैतिक धन से रेगिस्तान बना दिए गए हैं।
तीन
तुम्हारा झुर्रियों से भरे माथे वाला,
टपकते हुए पसीने से मलिन
सुर्ती की गंध से व्याप्त
मैला-कुचैला मुँह
चूम लेने लायक़ है।
चार
चौराहे पर जब तुम
अपनी पथराई अगोरती आँखों से
पैदल चलने वालों की बाट जोहते हो
उस समय तुम्हारे मुँह पर छाया सूनापन
मेरे दिल को दिन रात जलाता रहता है।
पाँच
नसों को फोड़ते हुए
साँसों को रोक कर,
सारी ताक़त झोंक कर
जब अपने रिक्शे को तुम चढ़ाई की ओर खींचते हो
तो मेरा जी बिल्कुल डूबने लगता है।
छह
अपनों नेताओं की प्रवृत्ति जैसे
समता रहित रास्तों पर
जब तुम ब-मुश्किल रिक्शा खींचते हो
तो तुम्हारे दुःख से दुःखित होकर मैं सोचता हूँ
अच्छा होता
तुम्हीं बैठ जाते और मैं तुम्हारा रिक्शा खींच लेता।
सात
अपराधबोध से लजा जाता हूँ मैं
कि मनुष्यता कितनी अन्यायग्रस्त है
कोई तो
ऊँचे आसन पर बैठा है
और कोई मशीन की तरह उसे खींच रहा है।
- रचनाकार : बलराम शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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