कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रस्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता-टविता लिख दी तो
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया
अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
हाँ जी हाँ, वही कनफटा हूँ, हेठा हूँ
टेलीफ़ोन की बग़ल में लेटा हूँ,
रोता हूँ धोता हूँ रोते-रोते धोता हूँ
तुम्हारे कपड़ों से ख़ून के निशान धोता हूँ
जो न होना था वही सब हुवाँ-हुवाँ
अलबत्त उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई में जीन्स पहनी बेटी को देख प्रमुदित हुईं कमला बुआ
तब रमीज़ क़ुरैशी का हाल ये था
कि बम फोड़ा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहाँ
उसके कई साथी इन दिनों टी.वी. पर चमकते हैं
मगर हमारे दिल उसी के लिए सुलगते हैं
अलबत्ता कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे हैं इधर अच्छी काट के कपड़े
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदाहरण
उनकी ही भाषा में ׃
‘रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाक़ी
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमें साक़ी’
‘मज़े का बखत है तो इसमें हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन द्यो कुछ मज्जा परेसानी क्या है’
अनिद्रा की रेत पर तड़-पड़ तड़पती रात
रह गई है रह गई है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात
- पुस्तक : कविता वीरेन (पृष्ठ 283)
- रचनाकार : वीरेन डंगवाल
- प्रकाशन : नवारुण
- संस्करण : 2018
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