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क्रूरता

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दूधनाथ सिंह

दूधनाथ सिंह

क्रूरता

दूधनाथ सिंह

और अधिकदूधनाथ सिंह

     

    एक

    मैंने तुम्हें अपनी बाँहों में निश्चित सोते हुए देखा है।
    जब वह मणि मुझसे छीन ली गई
    मेरी आँखों से रोशनी बन तुम्हीं टपक रही थीं—
    यह दिखाने के लिए कि मैं सच में कितना अकेला हूँ।

    एक दिन घने अंधकार में से अपने पीले हाथ निकालकर
    तुमने तेज़ नाख़ूनों से मेरा चेहरा खरोंच दिया
    वह मेरा जन्मदिन था—
    सत्रह अक्टूबर सन् उन्नीस सौ...
    जब मैंने तुम्हारी आहट सुनी थी।
    अपने चेहरे की काली ख़राशों में तभी से
    मैं तुम्हें देख रहा हूँ।

    तुम मेरे प्रति बहुत सहानुभूतिशील रही हो—
    जब मेरी नसों में ख़ून ऐंठ गया है,
    जब मेरे हाथों पर मोटी-मोटी नसें निकल आई हैं,
    जब भी मैं गहन दुःख से अभिभूत हुआ हूँ—
    तुम्हें मेरा चेहरा बहुत ख़ूबसूरत लगता रहा है
    और तुमने करुणा-विगलित हो ‘च्च-च्च’ किया है।
    जब भी कोई दिन अतीत हुआ है
    शाम को मेहराबों में मेरे लिए इंतज़ार में तुम बैठी रही हो।

    दो

    आदमियों के जंगल में लेटी हुई कितनी उदास हो तुम!
    (यह तुम्हें क्या हो गया है!)
    मैंने महाकाव्यों की आँखों में तुम्हें टकटकी बाँधे हुए देखा है।
    वेदों की ऋचाओं और बुद्ध के उपदेशों
    और निराला की कविताओं में मैंने
    पोस्त के फूल की तरह तुम्हें सूँघा है।
    मैंने तुम्हें अली अकबर खाँ के सरोद पर सुना है।
    मैंने एक शहर के ‘चुप’ से दूसरे शहर के
    ‘चुप' में उतरते हुए तुम्हें देखा है।
    मैंने स्त्रियों के वक्षोजों पर तुम्हें भाँप लिया है।
    मैंने आसमान के अलिखित, अंधकारमय गुंबदों से
    तुम्हें टूटते हुए देखा है।
    आदमियों के जंगल में लेटी हुई कितनी उदास हो तुम!

    मैंने तुम्हारे साथ—कितनी बार—शताब्दियों की
    शराब पी है (और बुत पड़ा रहा हूँ)।
    मैंने गहरे प्यार में तुम्हें, चुप, अपना काम करते हुए देखा है।
    मैंने गहन आलिंगन के बीच तुम्हें रेंगते हुए महसूस किया है।
    मैंने प्रभु के कंधों पर ढीठ बँदरिया की तरह
    तुम्हें बैठे हुए देखा है।
    मैंने तुम्हारे साथ कितनी बेवफ़ा यात्राएँ की हैं।
    मैंने खुली क़ब्रों के मुँह से आग भभकाते हुए तुम्हें देखा है।
    मैंने बच्चों की अजनबी अस्वीकृति में झेला है तुम्हें।
    मैंने अस्पताल की गैलरियों में झनझनाते हुए सुना है तुम्हें।
    मैंने इनसान की मरी हुई खोपड़ी में
    दीपक बालते हुए देखा है तुम्हें।
    मैंने तुम्हें मौत की गुफाओं में लेटे हुए पाया है।
    मैंने बड़ी-बड़ी आँखों के
    आईनों में मुस्कुराते हुए तुम्हें देखा है।
    मैंने सिद्धों की आत्मा में सेंध लगाते हुए तुम्हें पकड़ा है।
    मैंने रेत में पनपते हुए देखा है तुम्हें।
    मैंने दोस्तों की कोमल हथेलियों में तुम्हें स्पर्श किया है।
    मैंने अर्थी पर बँधी हुई लाशों के ऊपर
    तुम्हें छाया की तरह सरकते देखा है।
    मैंने गर्भस्थ शिशु की कँपकँपी में छुआ है तुम्हें।
    मैं तुम्हारे हाथों कितनी बार क़त्ल हुआ हूँ;
    और चुपचाप जीवित पड़ा रहा हूँ।

    तीन

    सारे संबंधों के टूटने के बाद
    तुमने मेरे कंधों पर धीमे से हाथ रख दिया है
    मैं तुम्हारा इतना कृतज्ञ हूँ कि कुछ नहीं कहता।
    जब-जब मैंने कहा है ‘क्या तुम बोलोगी नहीं?’
    सुविधा के लिए तुमने अपना मुख फेर लिया है।

    चार

    अब तुम बहुत बदल गई हो—
    तुम्हारे बालों में चाँदी पड़ रही है;
    तुम्हारी बाँहों का घेरा कंधों के पास से चौड़ा हो गया है;
    तुम्हारे उदर की त्वचा मोटी हो गई है।
    तुम कितनी उम्र-दराज लगती हो... फिर भी
    तुम्हारी लोकप्रियता दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती जा रही है।
    तुम अख़बारों में छप रही हो
    सभाओं में पारित हो रही हो
    संसद-भवनों में टहल रही हो
    दूकानों में बिक रही हो
    दिमाग़ों में भटक रही हो।
    तुम फ़ैक्टरियों में तराशी जा रही हो।
    तुम्हारा शिलान्यास हो रहा है
    दिल्ली, न्यूयार्क और मास्को में
    तुम्हारे संगमरमरी ‘स्टेच्यू’ लगाए जा रहे हैं।
    हर वैज्ञानिक ईजाद में साँस ले रही हो तुम...
    जवान हो रही हो।

    अंततः तुम कितनी नई हो! और कितनी ख़ूबसूरत
    तुमने सारे भविष्य का जीवन-बीमा करा लिया है...

    पाँच

    मैं हूँ—
    तुम्हारे लिए कवि हो गया हूँ;
    तुम हो—
    सभ्यतावश मुझे कफ़न उड़ाने के लिए
    खड़ी हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपनी सदी के नाम (पृष्ठ 76)
    • रचनाकार : दूधनाथ सिंह
    • प्रकाशन : साहित्य भंडार
    • संस्करण : 2014

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