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गीता-पाठ

gita path

अनुवाद : नीता बैनर्जी

विपुलज्योति शईकिया

और अधिकविपुलज्योति शईकिया

    हे पार्थ! यथार्थ यही है

    तुम रुके नहीं, भ्रमण-रत हो

    क्योंकि

    ऐसे रुके रहने का अर्थ भ्रमण ही है पार्थ!

    चारों ओर तुम्हारे

    पृथ्वी है गतिमान निरंतर

    कलियाँ खिलीं फूल बनकर

    फिर गिरीं धरा पर मुरझाकर

    नन्हे-नन्हे शिशु कल के

    बने भयंकर युवक आज

    मन में लेकर संकल्प कोई

    ली बाँध कमर में छुरी

    चिमनियाँ धुएँ के बने

    जो कल तक थे हरे-भरे पहाड़

    मानव-मन के भीतर-बाहर की

    रुकी नदी अब बरस पड़ी

    रुकी नदी की बरखा फिर

    बरस-बरसकर नदी बनी है

    लौट आई हैं बेचारी चिड़ियाँ

    हो चुका नष्ट नीड़ जिनका,

    मानव की जीवन-संध्या

    की छाया

    इतिहास के पन्नों में

    दीर्घ से दीर्घतर होती हुई

    खो गई है घुप्प अँधेरे में

    हे परिश्रांत पार्थ!

    इस रुकने का

    अर्थ ही है भ्रमण

    जीवंत समय के बीच तुम्हारा

    अंतहीन है परिभ्रमण

    यह सच है

    है यह अवरोहण, पर

    खेद का कारण नहीं

    अब वास्तविकता है यही

    और पार्थ,

    वास्तव केवल कठोर ही नहीं

    कभी-कभी होता है अर्थहीन

    किंतु फलों पर कर्मों के

    तुम्हारा वश भी तो नहीं

    तुम हो उपलक्ष्य मात्र

    सीधे शब्दों में—कठपुतली

    इस रुके भ्रमण को,

    सुनो पार्थ,

    अव्याहत रहने दो अभी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1989-90-91 (पृष्ठ 27)
    • संपादक : र.श. केलकर
    • रचनाकार : विपुलज्योति शईकिया
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1993

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