एक
हज़ारों सूर्य
निस्तेज हैं
जलती चिताओं में।
चिता की आग में
आग का आर्त्तनाद।
दो
तमाम
तारीख़ें
आग में झुलस गईं।
जूते
रौंदते रहे
फूलों के गुच्छ।
तीन
हाहाकार
अफ़रा-तफ़री।
तफ़री में
उत्सवी।
दिग्विजय अश्व की अयाल
नाल में फँसी।
चार
आत्म-निर्भर
मृत्यु,
अपनी ही अंत्येष्टि में
शामिल।
पाँच
जीते-जी दुर्दशा
जाते-जाते दुर्दशा
एक ही दशा
दुर्दशा।
छह
इंसानों ने
इंसानों से पूछा
कहाँ गए
इंसान।
सात
सांत्वना
करती रही
विलाप।
मनुष्यों के अस्थिपंजर में
बची रहीं
अस्थियाँ।
आठ
निस्पंदित शव
अंतिम साँसें थामें
देखते हैं आकाश
आकाश का नीलापन
और स्याह हो जाता है।
नौ
धरती की छाती
खोदते-खोदते
दफ़्न हो गई क़ब्रें
धधकती चिताओं के कुहासों में
उड़ते धुएँ की चिंगारियों में
खो गई
असंख्य आँखें।
नाउम्मीदी में
शब्दों की फड़फड़ाहट
वीरान है।
दस
माँ की टूटती साँसों से
चिपका है
नवजात
शून्य का आयतन
कुछ और बड़ा हो जाता है।
ग्यारह
हँसी के फ़व्वारों में
आँसुओं की फुहारें
खो गई
डूब गई नदियाँ
रेत में।
बारह
दूर-दूर तक
गिरस्तियों के खंडहर
छितराए हैं
ये मोहनजोदड़ो-हड़प्पा नहीं है
जीते-जागते
मनुष्यों का उत्खनन है।
तेरह
ठसाठस अँधेरा
मुख़ातिब होता है
चहुँओर
झुटपुटा का
छोटा-सा टुकड़ा
हवा में प्रज्वलित होता
चौदह
मणिकर्णिका में
समा गई हैं
सारी की सारी
मणिकर्णिकाएँ
सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र
कूच कर गए।
पंद्रह
रात इतनी लंबी हो चली
इन दिनों
लालिमा तो फूटती है
सुबह नहीं होती।
सोलह
तड़फड़ाती मृत्यु
पथराई आँखों में गिरती है
स्मृति की धुँधली-सी
अमूर्त छवि
मर जाती है
वैसे ही जैसे
ढाढ़स बँधाते लोग उठकर चले जाते हैं।
सत्रह
पुकारती मृत्यु
अपनों से अपनों को अलग करती
लौट-लौटकर फिर आ जाती है
रौशनी की टिमटिमाती आँखों में
अँधेरे के सोए दृश्य
जाग जाते हैं।
अठारह
क्रंदन
रुदन
दिशाओं का स्थाई-भाव हो चला
जैसे टूट कर गिरता है आसमान
गिरता है दु:खों का पहाड़
फ़क़त आँकड़ों की उपत्यकाएँ
गिरती रहती हैं।
उन्नीस
साँसों में
साँसों का लेखा-जोखा
इतना
पलक झपकते
धप्प से गिर गया
जीवनाकाश।
बीस
गिनती ही भूल गई
गिनती
शवों को गिनते-गिनते,
संवेदना
शब्दों की तुक-तान
क्रीड़ा रचती
हाकिमों के अट्टहास में
खो गई।
- रचनाकार : वंशी माहेश्वरी
- प्रकाशन : समालोचन
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