कोरोना-समय में एक मृतक की अनलिखी कविताएँ
korona samay mein ek mritak ki analikhi kawitayen
मनमीत सोनी
Manmeet Soni
कोरोना-समय में एक मृतक की अनलिखी कविताएँ
korona samay mein ek mritak ki analikhi kawitayen
Manmeet Soni
मनमीत सोनी
और अधिकमनमीत सोनी
एक
मृतक भी तो चाहता होगा
अंतिम बार देख ले उन्हें
जिन्हें वह हर दिन देखता था!
दो
फूँको मत
जलाओ मत—
अग्नि दो मुझे...
तीन
बंद शीशों वाली एंबुलेंस में
सीधे श्मशान घाट ले गए मुझे!
अहा!
वह मेरा बरामदा
वह चार कंधों का झूला
वह पुराने बाज़ार का आख़िरी चक्कर
वह रोना जो आज के दिन सिर्फ़ मेरे हिस्से का था
अब टीस बनकर रह गया है!
चार
जब राख हो जाऊँगा
तब इंफ़ेक्टेड नहीं कहलाऊँगा—
गंगा में बहूँगा
कलमुँही बीमारी को चिढ़ाते हुए।
पाँच
संसारियो!
तुम्हारा मृत्यु-बोध मर चुका था
मैंने असमय मर कर
उसे फिर से जीवित कर दिया है।
छह
एक मेला था
जिसमें सब लोग जी रहे थे
नाच रहे थे, खा रहे थे, पी रहे थे—
फिर एक सच्ची अफ़वाह उड़ी
भगदड़ मची
और मैं
उसमें कुचलकर मर गया।
- रचनाकार : मनमीत सोनी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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