कोमल
komal
किस स्थानीय मसख़रे ने
उसे ख़ुद को कोमल गाँडू कहना सिखा दिया था
यह एक रहस्य है
लेकिन अब उसे किसी और नाम से पुकारना अजीब लगता था
कई बार मुहल्ले की संभ्रांत महिलाएँ भी
उस पर कोई फ़ुटकर दया करते समय
उसे इसी नाम से अनायास पुकार देतीं
और फिर कई दिनों तक
अपनी ज़ुबान दाँतों के नीचे रख आपस में खिसखिसाया करती थीं।
अपने विधुर पिता मुंशीजी और छोटे भाइयों के लिए
वह अनिर्वचनीय दैनंदिन लज्जा की कारण था—
अक्सर वे अपने काम से
घर पर ताला डालकर चल देते थे
और गलियों-बाज़ारों से वह लौटता, थका हुआ और ख़ुश,
तो देर तक दरवाज़े के पास बैठे रहने के बाद
जब भरे-पूरे शरीर की भूख उसके दिमाग़ तक पहुँचती
तो किसी भी घर के सामने
वह सपरिचय रोटी के लिए पुकारता
जो शीघ्र ही मिल जाती—उसे अपने प्रभाव का पता न था
किंतु जवान होती हुई लड़कियों के उस इलाक़े में
कौन अपने दरवाज़े पर बार-बार वह बेलौस नाम सुनना चाहता।
जहाँ मरियल लड़कों और नुक्कड़-नौजवानों का मनोरंजन
उस मानव रीछ को नचाने-गवाने
और सारा वैविध्य समाप्त हो जाने के बाद रुलाने का था
(विचित्र आनंददायक भाँ-भाँ रुदन था उसका)
वहाँ वह नितांत मित्रहीन भी नहीं था। लोगों ने
उसे राममंदिर में हमेशा औंधे पड़े रहने वाले कबरबिज्जु से
और चुड़ैल समझी जाने वाली सत्तर वर्षीया भूतपूर्व दहीवाली से भी
लंबी बातें करते हुए देखा था
जो दोनों के बीच रोमांस और शादी (मज़ाक, भारतीय शैली)
की अफ़वाहों के बावजूद
उसे बेटा कहती थी।
अपनी क़िस्म के लोगों की तरह
अरसे तक ग़ायब रहने की आदत
हमारे चरितनायक की भी थी लेकिन
अबकी बार जब वह लौटा
तो दरवाज़े पर कई दिन बैठने के बाद भी ताला नहीं खुला
और लोगों ने भरसक उसे समझाया
कि मुंशीजी और उसके भाई मकान और शहर छोड़कर चले गए
लेकिन वह ख़ुश होता हुआ उनकी तरफ़ देखता रहा
फिर कुछ दिनों तक लगातार
कबरबिज्जू तथा दहीवाली से गुप्त मंत्रणाएँ करता रहा
और इसके-उसके चबूतरे पर सोने की खुली कोशिशें। जब
मकान में वाक़ई असहिष्णु दूसरे रहने वाले आ गए
तो वह अदृश्य हो गया।
यहाँ से तथ्यों का दामन छूटता है।
गृहस्थों की याददाश्त कमज़ोर होती है किंतु कल्पनाशीलता तेज़—
कबरबिज्जू और दहीवाली कहाँ चले गए
यह पूछें तो जानकारियों के अनेक संस्करण मिलेंगे।
और जिसके वे दोनों एकमात्र मित्र थे
वह कभी सिवनी, कभी नागपुर, कभी एक ही समय में
अलग-अलग तीरथों (और अगर हरनारायन वकील के लड़के
बैजनाथ पर विश्वास किया जाए तो बंबई तक) में
देख गया। जहाँ तक मुहल्ले के आम लोगों का सवाल है
उनमें काली माई के इष्टवाली जमनाबाई का सपना ही
ज़्यादा स्वीकृत हुआ है
जिसमें दिखा था कि कबरबिज्जु ने, जो असल में
एक मालगुज़ार था जिस पर सराप था,
वापस गाँव जाके ज़मीन-जायदाद जो थी सो ग़रीबों में बाँट दी
और साधू हो गया
दहीवाली बुढ़िया जो बिना बताए बरसों से बरत रखती थी
मैया की सिद्धी पाके सीधी सुरग चली गई
और गेरुआ अँगरखा पहने लाल-लाल आँखों वाला एक जोगी
जो आके ग्यान और करम की बातें कर रहा था
वह अपना कोमल गाँडू था।
- पुस्तक : पिछला बाक़ी (पृष्ठ 67)
- रचनाकार : विष्णु खरे
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 1998
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.