नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध हुए देशव्यापी आंदोलन के हक़ में लिखी कविता
कोई तो काग़ज़ होगा
ना रोटी ना कथरी होगी
और गिरस्ती बिखरी होगी
ठनठन होंगे बर्तन भांडे
साँस साँस साँसत में होगी
ना कोई साया,
ना छावज होगा
पर कोई तो काग़ज़ होगा!
कौन मुलुक है
कहाँ जनम है
किस मिट्टी का दीन-धरम है
बरसों बीते होंगे याँ पे
इनकी गिनती कहाँ रक़म है
कहता फिरता देसी हूँ मैं
उनको लगता
जारज होगा
कोई तो काग़ज़ होगा
पांडुरंग से बच्चे तेरे
औ मरियम-सी एक बीवी है
चरख़े-पीर से वालिद हैं तो
अम्मी ज़ैनब की पीरी है
होगा पा-ए-क़ैस का छाला
तंगहाल-सा एक गुवाला
पुरइन-पात-पखावज होगा
पर कोई तो काग़ज़ होगा
बुर्ज और बारादरियों में
जो नहीं रहीं उन बाबरियों में
क्या कोई दुआ तेरी बाक़ी है?
उम्मीदों के इस मक़तल में
क्या ख़्वाबों का इक घर बाक़ी है?
बे-दस्तावेज़ी जीता आया
अब क्या पसे मुर्दन
दो गज़ होगा?
कोई तो काग़ज़ होगा?
जल-जंगल-ज़मीन तेरे थे
मोमिन और मतीन तेरे थे
हर पैमाइश से बच जाएं
ऐसे सब यक़ीन तेरे थे
आदिवास के दावे होंगे
अबसे चौपट नगरी मरकज़ होगा,
कोई तो काग़ज़ होगा?
सरहद-सरहद के खेलों में
कबीर-ओ-सरमद की बातें कैसी?
राष्ट्रवाद के जमे नगर में
चलती दुनिया की ऐसी-तैसी
बसना और उखड़ना छोड़ो
मिलना और बिछड़ना छोड़ो
तक़सीमों के इस मौसम में
ये सहरा है अपना छोड़ो
जो इंसां का मुज़रिम होगा
वो ही इंसां का जज होगा
कोई तो काग़ज़ होगा।
- रचनाकार : सौम्य मालवीय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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