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किनारे

kinare

उपांशु

उपांशु

किनारे

उपांशु

दूर,

बहुत दूर

जहाँ किनारे कुछ बसा हो

बहती नदी, हरे पर्वत,

सरसों के खेत,

और चाँदी-सी मिट्टी पर हरी-पियरी घास,

पीरों की क़ब्र हो,

हो सुलगते श्मशान

दूर,

बहुत दूर चल लेने के बाद भी

हो

गालों पर जहाँ आँसुओं के निशान।

मैंने दूर

वहाँ,

देह नोच खाने वाले

सगों और संबंधियों से,

बहुत दूर,

नारियल की छाँव में,

समंदर किनारे रेत पर,

आसरा बनाया है;

तुम्हारे लिए।

ऐसी कितनी पंक्तियाँ

गर्मियों की धूप में सूखती रेत निगल गई।

जो सुर सँजोए

सितारों को भेज

अमावस्या की रात ने,

वो गीत मल्हार का गड़गड़ाता आलाप

निगल गया।

मेरे,

तुम्हारे,

बहुत पास

जो नदी बहती है—

इस शहर के नालों से—

उसके किनारे कितने-कितने घरों में,

हथेलियों से झाँपे गए मुँहों में,

कितनी-कितनी चीख़ें बंद हैं।

मैंने गीतों में

हथेलियों के बीच

सुंदर संसार उभरते देखा है।

मैंने जीवन भर

कई सुंदर संसारों को

हथेलियों के बीच

मसले जाते भी देखा है।

पास,

बहुत पास,

तपिश से निकल रहे पसीने पर,

प्याज़ के रस से धुल रहे रक्त पर,

चर्म पर खिंच रहे नून की लीक पर,

अंत:करण की आख़िरी साँसों पर,

जो लिखे जा रहे हैं गीत,

मेरे, और तुम्हारे, जीवन पर। पड़ते हैं

उनके स्वर मेरे कानों में

अट्टहास की तरह

वीभत्स!

दूर, बहुत दूर,

यहाँ से

आसरा

अगर

असल

हो जाए,

तुम्हारे सहारे

मेरा देह वहीं बस जाएगी

लेकिन मेरे गीतों से धूसर हुई रेत

इसी नदी के किनारे धुल रही होगी।

स्रोत :
  • रचनाकार : उपांशु
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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