खींचती है मुझे अपनी ओर कू-कू की आवाज़-दो
khinchti hai mujhe apni or ku ku ki avaz do
लक्ष्मीकांत मुकुल
Laxmikant Mukul
खींचती है मुझे अपनी ओर कू-कू की आवाज़-दो
khinchti hai mujhe apni or ku ku ki avaz do
Laxmikant Mukul
लक्ष्मीकांत मुकुल
और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल
नदी के कगार किनारे
गूलर की गझिन पत्तों वाली डाल पर
जाने क्या कूकती है कोयल
प्रेम की तीव्रता या विरह पीड़ा की बातें
तुम भी तो जाती हो उधर सूखे कंडे बटोरने
गोबर पाथने बुढ़वा इनार के पास
क्या बतियाती हो उसके साथ
शायद, वह कौवे के प्रतिघात की शिकायत करती होगी
तुमसे तुम भी मेरी बेवफ़ाई के खाँची भर उलाहने
साझा करती होगी उसके साथ
दुख भरी अंदाज़ में कहती होगी कुहुकुनी
अब नहीं बचे घने वाले बाग़
उसके कूकने को नहीं माना जाता है
लग्न मासों के आरंभ होने का समय
उसकी मधुरम आवाज़ से अब नहीं भरते
पोरदार ईख की डंठलों में अमृत सरीखी रसधार
उसकी दर्द को बड़ी गौर से सुनती हुई तुम
आख़िर कहीं देती होगी अपनी व्यथा-कथा
अब नहीं रहा वह प्रेमिल भाव बोध जीवन में
पहले जैसा, जब हम मिले थे कौमार्यावस्था में
उस नीम की घनी छाँव में,जब देर तक कूकती रही थी तुम।
- रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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