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कविता के सपने

kavita ke sapne

सुरेंद्र स्निग्ध

सुरेंद्र स्निग्ध

कविता के सपने

सुरेंद्र स्निग्ध

और अधिकसुरेंद्र स्निग्ध

    आजकल आधी-आधी रात के बाद

    सन्नाटे को सघन बनाती

    आती है दबेपाँव

    और चुपचाप

    सिरहाने बैठ जाती है कविता

    उड़ा ले जाती है मेरी नींद

    और मानस में

    ग्रहण करने लग जाती है

    कई-कई रूप

    मेरी गली के नवागत

    नन्हें सोनू की शक्ल में

    आती है कविता

    मचलती रहती है

    पास आने के लिए

    और आकर तुरंत

    दूर भाग जाती है

    अपने आने की एक रेखा छोड़कर

    सूरज की किरनें बनकर

    वह बाँटना चाहती है ऊर्जा

    खेतों में लगी

    फसल की बालियों में

    भरना चाहती है संगीत और लय

    नाच जानी चाहती है

    बनकर दूध

    नन्हें शिशु की पलकों में

    बोना चाहती है

    दुनिया को बदलने के

    असीम सपनों के बीज,

    बन जाना चाहती है

    उसके लिए

    दूध से लबालब छलकती

    माँ की छातियाँ

    मेरी कविता

    आज भी बनना चाहती है पोस्टर

    उगना चाहती है दीवारों पर

    मानव-मुक्ति की इबारत बनकर

    पैदा करना चाहती है घृणा

    उसके ख़िलाफ़

    जिसने पूरी दुनिया को

    कर लिया है क़ैद

    और बो दिया है नफ़रत का बीज

    मेरी कविता

    आँधी बनकर दौड़ना चाहती है

    बिहार के उन गाँवों में

    जहाँ के मज़दूर-किसान

    रच रहे हैं नया इतिहास

    जहाँ के क्षितिज पर

    फैल रही है एक नई लाली

    उग रहा है एक नन्हा सूरज

    मेरी कविता

    उन योद्धाओं की आशा आकांक्षा के

    बन जाना चाहती है गीत

    बन जाना चाहती है

    उनके हाथों के हथियार

    गुरिल्ला दस्ते की बंदूकों की गोलियाँ

    करना चाहती है

    अब भी छलनी

    वर्ग-दुश्मनों की छातियाँ

    मेरी कविता

    चंदवा रूपसपुर से करती है यात्रा

    पहुँचना चाहती है

    अरवल, कंसारा, कैथी, पारसबीघा,

    नोनहीनगवाँ—

    और यहाँ की मिट्टी की ख़ुशबू बनकर

    फैल जाना चाहती है

    पूरे मुल्क में ताज़गी के साथ

    मेरी भोली-भाली कविता

    अभी भी छीनने को तैयार है

    दुश्मनों की राइफ़लें

    युद्धरत मुक्ति-सेना के कंधों पर

    इन राइफ़लों को करना चाहती है तब्दील

    फूलों से लदी

    डालियों के रूप में

    जिस पर चहक सकें चिडिया

    जिसके परागकण

    पैदा करें

    श्रमिकों के लिए

    शहद का अक्षय भंडार

    पोस्टरों पर फिर-फिर

    गोली दागने की

    फूल खिलाने और

    ख़ुशबू छलकाने की भाषा

    बोलना चाहती है

    क्योंकि

    दुनिया को ख़ूबसूरत और

    बेहतर बनाने के सपनों से

    लदी है मेरी कविता।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुरेंद्र स्निग्ध
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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