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कॉकरोच

kaukroch

द्वारिका उनियाल

और अधिकद्वारिका उनियाल

    सुबह नज़दीक से एक कॉकरोच को मरते देखा

    हमेशा दूर से हिक़ारत भरी नज़रों से देखा था मैंने उन्हें

    मानो उनका ज़िंदा रहना

    मानवीयता पर धब्बा हो

    कभी झाड़ू से तो कभी अख़बारों से

    कभी लातों से धुतकारा है

    पर आज मैंने वह सब नहीं किया

    उसे देखा कोशिश करते हुए जीने के लिए

    देखा कैसे अपनी पीठ के बल लेटे हुए

    बेजान पैरों से उठने की कोशिश कर रहा है

    देखा कि वह थक रहा था

    उसके मरने को देखकर

    मैं उधेड़ बुन में था

    वह तड़पता रहा

    सुन्न-सा उसे देखता रहा

    उसके मरने के आख़िरी पलों में वो अकेला नहीं था

    पहली बार मुझे उसके ज़िंदा होने का एहसास हुआ

    तब-जब वह मर रहा था

    दो टूक देखकर

    बाहर निकल आया

    अपनी ज़िंदगी जीने

    जैसे कि होता ही है

    बारिश में चींटियाँ बह जाती हैं

    सड़क पे कुत्ते कुचलें जाते हैं

    वैसे ही बस्तियों में बाढ़ आती है

    जब गलियों में आँते कटती हैं

    जब कोई दरिया में डूबता है

    जब बोरवेल में सांसें अटक जाती हैं

    हम सब किसी ना किसी के लिए

    सिर्फ़ एक कॉकरोच है

    हमारे वजूद की साँसें कोई गिनता नहीं

    हमारी रीढ़ की हड्डियाँ टूट चुकी हैं

    हमारे हाथ लाचार

    सोचने समझने की इंद्रियाँ कुंद

    हम भी अपने-अपने किचन की तलाश में भाग रहे हैं

    यहाँ से वहाँ

    रोज़ सुबह अपने बिलों से निकलते हैं

    देर रात अपने बिलों में वापस

    हमारे आस-पास सब कॉकरोच हैं

    एक दिन इसी तरह कोई दूसरा

    देखेगा हमें मरते और मुँह फेर

    एक लात मार

    कचरे के ढेर में डाल

    निकल लेगा

    उसे ऑफ़िस जो जाना होगा

    स्रोत :
    • रचनाकार : द्वारिका उनियाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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