बग़ल में पोटली दबाए,
एक सिपाही थाने में घुसा
और सहसा
थानेदार को सामने पाकर
सैल्यूट मारा,
थानेदार ने पोटली की तरफ़ निहारा।
सैल्यूट के झटके में
पोटली भिंच गई,
और उसमें से
एक गाढ़ी-सी
कत्थई बूँद रिस गई!
थानेदार ने पूछा,
अबे! ये पोटली में से
क्या टपका रहा है?
क्या कहीं से
शर्बत की बोतलें
मार के ला रहा है?
सिपाही हड़बड़ाया—
हुज़ूर, इसमें शर्बत नहीं है।
—शर्बत नहीं है,
तो घबराता क्यों है हद है
शर्बत नहीं है, तो क्या शहद है?
सिपाही काँपा—
सर, शहद भी नहीं है,
इसमें से तो
कोई और ही चीज़ बही है।
और ही चीज़!
तो ख़ून है क्या?
अबे जल्दी बता!
क्या किसी मुर्ग़े की गर्दन मरोड़ दी,
या किसी मेमने की टाँग तोड़ दी?
अगर ऐसा है तो बहुत अच्छा है,
पकाएँगे,
हम भी खाएँगे,
तुझे भी खिलाएँगे।
सिपाही घिघियाया—
सर! न पका सकता हूँ
न खा सकता हूँ
मैं तो बस आपको दिखा सकता हूँ।
इतना कहकर सिपाही ने
वो पोटली
मेज़ पर खोली,
देखते ही
थानेदार की भी आत्मा डोली।
उस पोटली से निकले
किसी नौजवान के
दो कटे हुए हाथ
थानेदार ने पूछा—
बता क्या है बात!
ये क्या कलेश है?
सिपाही बोला—
हुज़ूर! रेलवे लाइन,
एक्सीडेंट का केस है।
एक्सीडेंट का केस है
तो यहाँ क्यों लाया है,
और बीस परसेंट बॉडी ले आया
एट्टी परसेंट कहाँ छोड़ आया है?
सिपाही ने कहा—
माई बाप!
ये बंदा इसलिए तो शर्मिंदा है
क्योंकि एट्टी परसेंट बॉडी तो
ज़िंदा है।
पूरी लाश होती
तो यहाँ क्यों लाता
वहीं उसका पंचनामा न बनाता!
लेकिन हुज़ूर
ग़ज़ब बहुत बड़ा हो गया
वो तो हाथ कटवा के खड़ा हो गया।
रेल गुज़र गई तो मैं दोड़ा
वो तना था, मानिंदे-हथौड़ा
मुझे देखकर मुस्काने लगा
और अपनी ठूँठ बाँहें
हिला-हिलाकर बताने लगा—
‘ले जा, ले जा,
ये फ़ालतू हैं,
बेकार हैं,
और बुला ले कहाँ पत्रकार हैं,
मैं उन्हें बताऊँगा कि काट दिए।
किसलिए?
इसलिए कि
मैंने झेला है
भूख और ग़रीबी का
एक लंबा सिलसिला,
पंद्रह साल हो गए
इन हाथों को
कोई काम नहीं मिला।
हाँ, इसलिए
मैंने सोचा कि फ़ालतू हैं,
बेकार हैं
इन्हें काट दूँ,
और इस सोए हुए जनतंत्र के
आलसी पत्रकारों को
लिखने के लिए एक प्लॉट दूँ।
प्लॉट दूँ कि
इन कटे हुए हाथों में
पंद्रह साल की
रोज़ी-रोटी की तलाश है,
आदमी ज़िंदा है
और
ये उसकी तलाश है,
इन्हें उठा ले
अरे, इन दोनों हाथों को उठा ले।
कटवा के भी मैं तो ज़िंदा हूँ
तू क्या मर गया?’
हुज़ूर!
इतना सुनकर मैं तो डर गया।
जिन्न है या भूत
मैंने किसी तरह
अपने आपको साधा,
हाथों को झटके से उठाया
पोटली में बाँधा,
और यहाँ चला आया।
अब इनकी रिपोर्ट कैसे बनाऊँ
इन्हें जलाऊँ या दफ़नाऊँ?
थानेदार बोला—
मामला सीरियस है
पर जलाने या दफ़नाने में
काहे की बहस है?
अरे नादान,
आदमी ज़िंदा है
तो दौड़ के जा
और पूछ के आ
कि हिंदू है या मुसलमान,
हिंदू है तो
हाथों की चिता बना,
मुसलमान है तो दफ़ना।
सिपाही बोला—
हुज़ूर!
अब मुझे न भेजें,
और इन हाथों को भी
अब आप ही सहेजें।
थानेदार भी चकरा गया
कटे हाथों को देखकर घबरा गया।
बोला—
इन्हें मेडिकल कॉलेज ले जा।
लड़के इन्हें देखकर नहीं डरेंगे,
इनकी चीरफाड़ करके
स्टडी करेंगे।
पता नहीं
इसके बाद क्या हुआ,
लेकिन घटना ने मन को छुआ
अरे,
उस पढ़े-लिखे नौजवान ने
अपने दो हाथों को खो दिया
और सच कहता हूँ कि
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में
एक दक्षिण भारतीय युवक के बारे में
ये ख़बर पढ़कर
मैं रो दिया।
और सोचने लगा कि इसे पढ़कर
तथाकथित बड़े-बड़े लोग
शर्म से क्यों नहीं गड़ गए,
अरे, आज आपकी ही कृपा से
एक अकेले पेट के लिए
दो हाथ भी कम पड़ गए!
वो उकता गया
आपके झूठे वादों
झूठी बातों से,
वरना वो
क्या नहीं कर सकता था
अपने इन दो हाथों से!
वो इन हाथों से
किसी मकान का
नक़्शा बना सकता था,
हाथों में बंदूक़ थाम कर
देश को सुरक्षा दिला सकता था।
इन हाथों से
वो कोई
सड़क बढ़ा सकता था।
क्रेन से सामान चढ़ा सकता था।
और तो और
ब्लैकबोर्ड पर
‘ह’ से ‘हाथ’ लिखकर
बच्चों को पढ़ा सकता था।
मैं सोचता हूँ
इन्हीं हाथों से
उसने बचपन में
तिमाही, छमाही, सालाना
परीक्षाएँ दी होंगी
माँ से पास होने की
दुआएँ ली होंगी।
इन्हीं हाथों में वह
प्रथम श्रेणी में पास होने की
ख़बर लाया होगा,
इन्हीं हाथों से उसने
ख़ुशी का लड्डू खाया होगा।
इन्हीं हाथों में डिग्रियाँ सहेजी होंगी,
इन्हीं हाथों से उसने
अर्ज़ियाँ भेजी होंगी।
और अगर काम पा जाता
तो ये निपूता,
इन्हीं हाथों से
माँ के पाँव भी छूता।
ख़ुशी के मौक़े पर
इन हाथों से ढपली बजाता,
और किसी ख़ास रात को
इन हाथों से
दुल्हन का घूँघट उठाता,
इन्हीं हाथों से झुनझुना बजाकर
बेटी को बहलाता,
रोते हुए बेटे के
गाल सहलाता।
पर तूने तो
काट लिए मेरे दोस्त!
लेकिन तू कायर नहीं है।
कायर तो तब होता
जब समूचा कट जाता,
और देश के रास्ते से
हमेशा-हमेशा को हट जाता।
सरदार भगत सिंह ने
ये बताने के लिए
कि देश में ग़ुलामी है
परचे बाँटे,
और तूने
बेरोज़गारी है,
ये बताने के लिए हाथ काटे!
मैं कोई बड़ी बात कह रहा हूँ
ऐसा तो मुझे
भ्रम नहीं है,
लेकिन प्यारे
तू किसी शहीद से कम नहीं है।
तू किसी शहीद से कम नहीं है,
क्योंकि तेरी शहादत के पीछे
लाखों बेरोज़गार नौजवानों की
क़तार है,
और उस पूरी क़तार की
यही पुकार है
कि हमारे भूखे-नंगे परिवारों को
रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम दो,
हमें काम दो,
हमें काम दो,
हमें काम दो।
- पुस्तक : हास्य-व्यंग्य की शिखर कविताएँ (पृष्ठ 36)
- संपादक : अरुण जैमिनी
- रचनाकार : अशोक चक्रधर
- प्रकाशन : राधाकृष्ण पेपरबैक्स
- संस्करण : 2013
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