निकल पड़ा है यात्रा पर यात्री
ख़ाली हाथ
नहीं पीछे उसके कोई जिसे हो उसकी प्रतीक्षा
न आगे कोई शुभचिंतक जो उसके नखरे उठा ले
वह गिरा है नभ से कोई तारा जैसे
अकेला थका-हारा, बेचारा
घसीटे जा रहा ख़ुद को कि पाए लक्ष्य कोई
कोई ऐसा गाँव याद नहीं उसे कि जहाँ उसे पहुँचना है
वह यह सोचकर चढ़ता है पर्वत शिखर पर कि मैं
ज़रा सुस्ता के आगे चलूँगा
और दूसरी चोटी से उतरता यह सोचकर
करूँगा विश्राम इस दुनिया में थोड़ा
यदि चले उस गाँव के बाहर बाहर वह तो
कई कुत्ते पड़ेंगे टूट उस पर
नगर में छेड़ते हैं लोग, उसको हैं चिढ़ाते
चले जो हरियर वन में तो रोके हैं काँटे, मुँह बा कर खड़े होते
सुना उसने नहीं कहीं परियों का गायन
न देखीं अप्सराएँ घूमती नदी के किनारों पर
भरमाया देवताओं ने भी उसको
मगर वह चलता ही रहा लगातार चलता रहा वह
तो शून्य छान मारा और जब थक-हार कर बैठा
तो रेत पर लेट गया था, रेत तंदूर बन गई थी
उसने नज़रें घुमाकर देखा और वह नभ को ताकने लगा
वह सब से है वहीं, तना खड़ा है
उसकी साँसें चल रही हैं पर वह हिलता-डुलता नहीं
जो देखा लोगों ने तो बोले कि यह कोई ऋषि है जो तपोलीन है
लोगों ने यहाँ चढ़ाईं सोने की ईंटें, मंदिर बनाया
अब वहाँ आते हैं काफ़ी लोग प्रतिदिन अनायास
वहीं करते हैं योगी अब तपस्या
भागे चले आते हैं शांति के लिए सब
दुःखी और पीड़ित लोग सारे।
- पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 115)
- संपादक : रतनलाल शांत
- रचनाकार : मोतीलाल साक़ी
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2005
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