काश कि पहले लिखी जातीं ये कविताएँ
kash ki pahle likhi jatin ye kawitayen
एक
वह एक उजली नाव थी जो गहरे आसमान में तैर रही थी
चाँदनी की झिलमिल पतवार लेकर कोई तारा उसे खे रहा था
आकाशगंगाएँ गहरी नींद में थीं
अपनी सुदूर जमगग उपस्थिति से बेख़बर
रात इतनी चमकदार थी कि काला आईना बन गई थी
समय-समय नहीं था एक सम्मोहन था जिसमें जड़ा हुआ था यह सारा दृश्य
यह प्रेम का पल था
जिसका जादू टूटा तो सारे आईने टूट गए।
दो
वह एक झील थी जो आँखों में बना करती थी
इंद्रधनुष के रंग चुराकर सपने अपनी पोशाक सिला करते थे
कामनाओं के खौलते समुद्र उसके आगे मुँह छुपाते थे
एक-एक पल की चमक में न जाने कितने प्रकाश वर्षों का उजाला बसा होता था
जिस रेत पर चलते थे वह दोस्त हो जाती थी
जिस घास को मसलते थे, वह राज़दार बन जाती थी
कल्पनाएँ जैसे चुकती ही नहीं थीं
सामर्थ्य जैसे सँभलती ही नहीं थी
समय जैसे बीतता ही नहीं था
वह भी एक जीवन था जो हमने जिया था
तीन
वह एक शहर था जो रोज़ नए रूप धरता था
हर गली में कुछ बदल जाता, कुछ नया हो जाता
लेकिन हमारी पहचान उससे इतनी पक्की थी
कि उसके तिलिस्म से बेख़बर हम चलते जाते थे
रास्ते बेलबूटों की तरह पाँवों के आगे बिछते जाते
न कहीं खोने का अंदेशा न कुछ छूटने का डर
न कहीं पहुँचने की जल्दी न किसी मंज़िल का पता
वे आश्वस्ति भरे रास्ते कहीं खो गए
वे अपनेपन के घर खंडहर हो गए
हम भी न जाने कहाँ आ पहुँचे
कभी ख़ुद को पहचानने की कोशिश करते हैं
कभी इस शहर को।
कुछ वह बदल गया
कुछ हम बीत गए।
- रचनाकार : प्रियदर्शन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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