कर्मयोग : एक ज़रूरी सलाह
karmayog : ek zarooree salaah
हिंसा की अतिरंजना देख जिन्हें
आती है उबकाई
वे भी नहीं बच पाते एक नज़र
उसकी ओर देखने भर के आकर्षण से
आदमी तभी तक सामाजिक रहता है
जब तक पाँव में
दमन और शोषण का काँटा नहीं चुभता
प्रत्येक रात घुटनों में सिर छिपाए
फुटपाथ पर सोने की
नाकाम कोशिश के नीचे दबे ऊब में
जब हम तलाश रहे होते हैं
मुख्यधारा से अलगाए जाने का कारण
तब पूस के दिनों में हमारे बिस्तर पर
‘कोयल-कारो’ (नदी) उतर आती है
और हम अभ्यस्त लोग इसे
समझ-समझ के फेर में समझते हैं
वॉटर कैनन का पानी
जिसे इतने सालों से संसद की गेट पर
झेलते आ रहे होते हैं
आंदोलन के दिनों में हमें
इतना पीटा गया कि
हमारी पीठ पर उत्पीड़न के थक्के जम गए
और किसी शानदार चीते की तरह
हम चमकने लगे शिकारियों की आँखों में
हर मुकम्मल दमन के नीचे
जानवरों से भरा जंगल दबा होता है
मन से ज़्यादा जहाँ दौड़ती हैं गाड़ियाँ
हमने तय किया है उन अजनबी रास्तों को
उड़ती धूल में कहीं छूटे हैं
हमारे पैरों के निशान
तय है कि कुछ भी तय नहीं
कुछ न बचाने की शर्त पर
कम से कम हमारे पगचिह्नों को तो बचाएगी
दाहिने पैर को बाएँ पैर से बदलने की युक्ति
कौंधेगा यह विचारोत्तेजक गीत की तरह—
कोई तो चला होगा इन अनचीन्हे रास्तों पर
धरती को करता हुआ लाल
पीछे छूटे इन पगचिह्नों को देखकर
आए भले न क्रांति
सोचेगा! कोई एक मन तो सोचेगा।
- रचनाकार : पीयूष तिवारी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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