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नित्यनिरंतर

nityanirantar

अनुवाद : बी. आर नारायण

रं. श्री. मुगलि

रं. श्री. मुगलि

नित्यनिरंतर

रं. श्री. मुगलि

और अधिकरं. श्री. मुगलि

    अंतरिक्ष के शून्य के प्रवाह में

    लहरों को चीर ध्वनि को छिपा

    यह महदाकार भूमंडल

    घूमता-झूमता चला है नित्यनिरंतर।

    घूमते सूर्य की सुखद क्रीड़ा में

    तम और प्रकाश के अमिल आखेट में

    रात्रि-दिवस के चरण-चरण में

    नचाता है सबको प्रति क्षण नित्यनिरंतर।

    यह क्या रंगों की अद्भुत माया

    सूर्य के चारों ओर घूमती

    पृथ्वी में, आकाश में, सहस्रों रश्मियों में

    उमड़ा कैसा सौंदर्य! नित्यनिरंतर।

    धूप की प्रखर तपन से जल-राशि

    भाप बन ऊपर जा बरसती है

    स्नेह की वर्षा और शीतल पवन से

    धरती होती हरियाली नित्यनिरंतर।

    धीमे-धीमे बढ़ दूज का चाँद

    पूर्णिमा पर मुद्रित करता जन-मन को

    दुखित हो क्षीण होता जब

    बढ़ाता तिमिर चलता नित्यनिरंतर।

    कालिमा है सब दिशाओं में व्याप्त

    बोती आती है मानो भय को

    अब तो मोहिनी-सी चमक तारों की

    भरी है नयनों में नित्यनिरंतर।

    मिलन शरीर और मन का बना सृजन का प्रतीक

    रुदन की नन्ही-सी ध्वनि, हिला संग पालना

    जीवन की यात्रा को चल पड़ा नया पथिक

    चलता है जीवन नित्यनिरंतर।

    आशा के आकर्षण में जीवन से करते प्यार

    आशा कुछ, प्राप्ति कुछ, यही व्यापार

    दुखित मन तप्त पहुँच मृत्यु के समीप

    होता सभी समाप्त नित्यनिरंतर।

    डाल सत्य पर पर्दा, करके सुख को नष्ट

    एकत्रित हो घेरे में असुर नाचने पर

    सुरलोक का सौंदर्य सम्मुख बरसने का

    स्वप्न देखने वाला लेता है जन्म नित्यनिरंतर।

    नित्य का सत्य आज दीखने पर

    अपने सूत्र को आप ही चलाने वाला

    मायावी उसके तथा मेरे दर्शक होने पर

    नाटक चलता है नित्यनिरंतर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 169)
    • रचनाकार : रं. श्री. मुगलि
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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