बादलों के बीच चमकी विद्युल्लता-सी
नीलांजना, चिलमन की आड़ से निकलकर
सहसा वेदी पर—मेरी अंतर्वेदी पर
प्रवेश करके करणों के नीचे
तहख़ाने में
घुसकर लूट लिया था
मन को
जो वहाँ क़ैद पड़ा था।
तुम्हारे नूपुर की ताल-गति पर
झूमर मुक्ताभरण, चुन्नट साड़ी की
ठुमक पड़े थे। मदहोश प्राण पाताल के गर्त में
गिरकर पल-भर तड़पकर फिर
लोकालोक की ऊँचाई तक मानो उछल पड़े थे।
सौदामिनि! हो गई तिरोहित जब तुम
काली बदली के बीच, बची थीं मेखला पैंजनिया।
बोली—जो कौंधकर बुझी थी—छोड़कर सहसा
हुई थीं ओझल कल्पना तुम, मायांगने!
- पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1984 (पृष्ठ 60)
- संपादक : बालस्वरूप राही
- रचनाकार : बी. सी. रामचंद्र शर्मा
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 1984
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