काली आँखों वाली प्रेमिका की याद में
kali ankhon vali premika ki yaad mein
रैंबो के लिए
जब कई बार वह मेरे साथ सो चुकी, इतनी बार कि उसकी जाँघे मेरी जाँघों के क़दम पहचानने लगीं, इतनी बार कि उसके पेट का निचला हिस्सा लाल हो जाता तो वह मेरी छाती पर घूँसे बरसाती, इतनी बार कि मेरे चुंबन फिसलना बंद कर चुके उसके होंठों से उसकी गर्दन तक, मैंने समंदर के किनारे, उस छोटे गाँव की बाहरी दीवार के नीचे अपना हृदय दिखाया था उसको एक दिन, दिखाए थे वे सभी अंत:वस्त्र जो मुझे प्रेयसियाँ देती रहीं, उसी तरह जैसे मैं उन्हें अपना शरीर देता रहा था।
अभिसार के सबसे क्रूरतम क्षणों में भी मैं जानता था मैं उससे कुछ भी माँग सकता हूँ, वह जानती थी, वह कुछ भी माँग सकती है—हम एक-दूसरे को वह सब दे सकते थे जो हमारे बस में था भी नहीं—ऐसा क्या माँगता मैं, जो मैं सिर्फ़ उससे चाह सकता—ऐसा क्या माँगती वह मुझसे, वहाँ रेत पर अर्धनग्न, काले बादलों से भरे आसमान के नीचे, समंदर के शोर में, पत्थरों की ओट लगाए—जहाँ छिल रहा था हमारा बदन—हमें और क्या चाहिए था।
प्रेम उगता है वहाँ जहाँ कमर समाप्त होती है—कोमलता का पैरहन सबसे दीर्घ वहीं-आत्मा की चरम साधना का अंतिम भोग-मेरा चेहरा डूब जाता था, उसके केशों में—हमने घास पर प्रेम किया, हमने समंदर में प्रेम किया, एक छोटे धूसरित कमरे में हम बेधते रहे एक-दूसरे को वैसे, जैसे अनंत सागर में कोई तूफ़ान पानी मथता है।
उसके गाढ़े नारंगी रूखे कुछ केश मैंने रख लिए, क्षुधा वश—उस गाँव के जितने स्वपन आते, उन सभी के लिए- नवयौवना उतनी फिर उसको कभी नहीं होना था—उतना क्रूर अधीर प्रेमी फिर कभी मुझे।
जितनी बार वह चीख़ती थी—मैं थम जाता था।
- रचनाकार : अंचित
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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