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कभी नर्तकियों के मंच के नेपथ्य में झाँकना

kabhi nartakiyon ke manch ke nepathy mein jhankna

श्वेतांक सिंह

श्वेतांक सिंह

कभी नर्तकियों के मंच के नेपथ्य में झाँकना

श्वेतांक सिंह

और अधिकश्वेतांक सिंह

    कुछ मिनटों की हँसी देखकर

    मदहोश होकर हँसते हो

    ठहाके लगाते हो

    झूमते हो, नाचते हो

    असीम सुख पाते हो

    ताड़ते हो आँखे निकालकर

    गड्डियाँ उड़ाते हो

    उनकी आबरू

    छलनी करते-करते

    अपनी शान बढ़ाते हो।

    तुम अँधे हो

    पूरी तरह बहरे

    सोंच से भोंथरे

    क्योंकि नहीं देख सकते

    उनकी बेबसी

    सुन हीं नहीं सकते

    उनकी निःशब्द चीख़ें

    समझ नहीं सकते उनके

    लाचार, मजबूर

    थिरकनों की पीड़ा

    सहमे क़दमों और

    दबे पैरों के

    मनोरंजन शाला में

    कूदने लायक सख़्त बनने की

    नामर्द और बेशर्म प्रक्रिया को।

    आँसुओ और सिसकियों की

    बड़ी लंबी यात्रा है

    असंख्य कलेजा भेदी

    यातनाओं की क्रूर आग हीं

    उन्हें ये मुस्कान नसीब कर सकती है,

    इतना ही नहीं

    टाँक देती है

    कुछ स्थाई टैटू और गोदने

    उनके मासूम चेहरे पे

    जो ढक लेती हैं

    उनकी मूल आत्मा को

    साथ ही साथ

    पोत देती है सतही कालिख

    कुलटा, दुश्चरित्रा

    कुलनाशिनी और कलंकिनी

    जैसे कुछ नामों की

    और

    तुम्हें स्थापित करती हैं

    मजबूरों का सिंगार बनाकर

    जैसे कोई गाय सदृश पतिव्रता

    बाँध दी जाती है हैवान से

    सात फेरों के दमघोंटू खूँटे से

    जिससे मुक्त होना

    उनके मृत होने के बाद संभव है।

    वो बिना प्राण के

    ख़ूबसूरत मूर्ति जैसी

    हिलती-डुलती

    गिरती-सम्हलती

    हाँफती-दौड़ती

    तुम्हारे अधमी इरादों से

    स्वयं को संभालती रहती हैं

    ताकि करा सके इलाज़

    अपने माँ-बाप का,

    दिला सके किसी बच्चे को

    उसकी ज़रूरी किताबें,

    दे सकें किसी स्त्री को

    उसकी आबरू का तोहफ़ा

    बचा सकें कोई घर

    किसी नीच साहूकार से,

    बढ़ा सकें

    अपने मायके की इज़्ज़त

    और

    रख सकें महफ़ूज़

    ढकोसले से सजे हुए

    अपने खोखले घोंसले को॥

    स्रोत :
    • रचनाकार : श्वेतांक कुमार सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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