जिजीविषा
jijiwisha
मैंने आज देखा
स्वयं को कुछ इस तरह—
नींद के इस छोर पर खड़ी थी मैं,
युवा, स्फूर्त और सचेत।
और उस छोर पर, वे,
कांतिमय किंतु उम्रदराज,
जीर्ण किंतु जिजीविषा लिए हुए।
एक ख़ूबसूरत युवा पुरुष उनकी
देख रेख कर रहा था।
मैं उन्हें देख रही थी,
एक चिकित्सक की हैसियत से
और वे मेरी ओर ऐसे देख रहीं थी,
जैसे देख रहीं हो अपना ही अक्स
एक स्वच्छ नदी में,
जो उनमें प्राण फूँक रही हो,
उन्हें उनकी युवावस्था दिखा रही हो।
वे मुझे देखती रहीं,
अपलक, निर्विकल्प।
मैंने जब हाल पूछा तो बोलीं
तुम मुझे बचा लो,
बस एक कविता से।
मैं देखती रही उन्हें आश्चर्य से,
और अगले ही पल
ढूँढ़ने लगी कविता की किताब,
अपने आस-पास,
पढ़ने कोई कविता जो,
बचा सके उन्हें।
उनकी साँसे कुछ थमी हुई सी थीं
लेकिन वे मुस्कराई,
बोली—तुमसे मिल कर आश्वस्त हूँ,
कि तुम मुझे बचा सकोगी।
मैंने उनकी इस बात का सिरा पकड़ कर
उन्हें बिस्तर पर करवट से बिठा दिया।
वे बैठते हुए बोलीं
जानना चाहोगी—कैसे?
मैंने हाँ में सिर हिला दिया,
मेरा ध्यान उनके संतुलन पर था,
और उनका मुझ पर।
वे गुनगुनाने लगीं एक कविता,
जानी पहचानी सी,
खिड़की की ओर देख कर,
वह कविता
जो कभी मैंने अपनी युवा अवस्था के
नयेपन में लिखी थी।
उनके गाते ही मैं दिखने लगी,
खिड़की के बाहर,
हाथ में डायरी और पेन लिए,
लिखती हुई वह कविता जो गा रही थीं वे।
मैं लिखती जाती,
वे गाती जाती,
और देखती जातीं, मुझे,
कभी खिड़की के बाहर,
कभी अपने नज़दीक।
वे मुझमें अपना वर्तमान जी रही थीं।
वे कहने लगीं,
कि मैं आश्वस्त हूँ कि तुम बचा सकोगी मुझे,
क्योंकि तुम अब भी पहचानती हो कविता।
अपनी संवेदना से।
तुम रख सकती हो जीवित मुझे
एक कविता से।
और फिर,
मेरी नींद का बाँध टूट गया,
सुबह कमरे की बत्ती जलने से।
मैं उठते ही उतारने लगी यह कविता
जो मैंने नींद में जाग कर रची थी,
स्वयं को जीवित रखने के लिए।
- रचनाकार : नेहल शाह
- प्रकाशन : पहली बार
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