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झनझनाती स्मृतियाँ

jhanjhanati smritiyan

ऋतु त्यागी

ऋतु त्यागी

झनझनाती स्मृतियाँ

ऋतु त्यागी

और अधिकऋतु त्यागी

    चित्त पर सनसनाती हैं मायूसी की फुहारें,

    झनझनाती है स्मृतियाँ,

    अँधेरी सुरंग में सुस्ता रहा समय खुरच रहा है पपड़ियाँ।

    आकाश, माटी, वायु में छर्रों सा बिखरता हैं संताप…

    मुट्ठी में किस क़दर पकड़े हो

    अनगिनत रेखाओं का जाल!

    जैसे शाम के धुँधले में अकेली अपनी चौखट पर बैठी वृद्धा की

    त्वचा पर झूल रहा हो दर्शन का कोई सिद्धांत...

    चौराहे से गुज़र रहा जीवन

    आँख की हर झपक पर मृत्यु से मिलता है,

    पर जीवन और मृत्यु दो अपरिचितों की तरह भीड़ के रेले से गुज़र जाते हैं।

    पूर्ण विराम से पहले के अधूरे विराम चिन्हों की तरह...

    ‘रुको…रुको…यायावर...!

    रुको तो!

    मृत्यु का स्वाद विषैला नहीं होता

    अधूरी कामनाओं की मकड़ी जब अपना जाल

    चिपचिपे हड़बड़िया फ़्रेम पर कारीगरी से बुनती है

    तो उसमें से फँसकर भी निकलना नहीं हो पाता...

    किसी रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में रखे

    ठीक उन दो पैरों की तरह,

    जो किसी अपने के इंतज़ार में

    वहीं किसी सीट के नीचे छूट जाते हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ऋतु त्यागी
    • प्रकाशन : हिंदवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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