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इतना लंबा आकाश

itna lamba akash

राजेंद्र यादव

राजेंद्र यादव

इतना लंबा आकाश

राजेंद्र यादव

और अधिकराजेंद्र यादव

    उस दिन सच, मन बहुत-बहुत टूटा था।

    उस दिन, मैंने कमरे के खिड़की-दरवाज़े घोट,

    उलट-पलट कर सारे काग़ज़-पत्तर

    खींच-खींचकर बंद दराज़ें

    पिछले पत्र, लिफ़ाफ़े (नीले, पीले, हरे, गुलाबी)

    जिनमें अब भी हल्की ख़ुशबू का-सा भ्रम था

    जिनकी तह के मोड़

    अक्षरों को जाने कब का खाकर

    अब फटने-फटने को थे

    —चित्र के फ़्रेम सहित चूल्हे में रखकर चाय चढ़ाई फिर

    उन लपटों की परछाईं को अपनी पुतली में पीता-सा

    घंटों सन्-सन् करत वाष्प विफल ढक्कन को

    अपलक खोया ताक रहा था

    —वे गीली-गीली छितरी अलकें

    मुस्कानें वे लुटी-लुटी-सी

    पलकों पर भीगी-सी मसली हँसी,

    गालों से वह आया ओंठों का वह खारा-खारा स्वाद

    सभी कुछ

    सब कुछ उन लपटों के उठने-गिरने में काँप रहा था

    ठंडी-ठंडी भूरी-भूरी राख

    हथेली पर रखकर

    एक हाथ के पंजे से बालों को जकड़े

    माथे को थामे

    जाने क्या-क्या सोचा किया बैठकर

    बार-बार कोई कहता था :

    ‘‘उट्टो, इसको गंगा की लहरों में दफ़ना दें, अब चल कर।’’

    पर

    पर चुकटी भर-भर ख़ुद अपने माथे पर तिलक कर लिया

    जाने किससे तब मन ही मन बोला था :

    ‘‘वर दो,

    मेरे सूनेपन को, अंधड के अन-चुक कोलाहल से भर-भर

    जाने का वर दो!’’

    आगे फिर सब कुछ रुँध गया

    हथेली झाड़

    झपट कर सारे दरवाज़ों को खोला

    अरे, इतना लंबा आकाश

    चिमनियों तक यों फैला चला गया है

    खुले किवाड़ों को हाथों से पकड़े

    चौखट पर ठिठके

    फिर देखा

    फिर-फिर कर देखा

    उस दिन सच, मन बहुत-बहुत टूटा था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आवाज़ तेरी है (पृष्ठ 74)
    • रचनाकार : राजेंद्र यादव
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1960

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