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इस्तीफ़ा

istifa

सुनील कुमार शर्मा

और अधिकसुनील कुमार शर्मा

    ख़तों ने दे दिया है इस्तीफ़ा

    वर्षों पहले आया था कभी डाकिया

    लिए साथ में एक लिफ़ाफ़ा

    लिफ़ाफ़े से निकला था एक ख़त

    सरकंडे की क़लम से लिखे

    बीत गया है अरसा अब।

    लिखे हुए ख़त

    फिसलकर

    कहीं खो गए हैं।

    उनके साथ कहीं चली गई हैं

    प्रतीक्षा की घड़ियाँ भी

    ख़तों के साथ

    भाप बन उड़ गई है भावुकता

    जो शब्दों में पिरोई जाती थी

    साथ में थोड़ी आत्मीयता

    और थोड़ा अपनापन भी

    उड़ेला जाता था उसमें

    नानी के ख़त के लिफ़ाफ़े को

    छूकर ही सब कुछ

    समझ जाती थी माँ

    अनायास फफक पड़ती थी

    सुनाने लगती थीं

    नानी के साथ बिताए गए

    लम्हों की कहानियाँ।

    स्कूलों को भी मालूम हो गया है

    ख़तों ने दे दिया है इस्तीफ़ा।

    नई पीढियाँ लिख रही हैं

    परीक्षाओं में ख़त अब

    कभी पिताजी के नाम

    तो कभी माँ के नाम

    तो कभी दोस्तों के नाम।

    विरासत के तौर पर

    सहेजकर रखे जाने लगे हैं

    संदूक़ों में ख़त

    दादा जी का लिखा ख़त

    या फिर नानाजी का लिखा

    लिखी जाने लगी हैं

    ख़तों पर कविताएँ और

    कहानियाँ भी

    ख़तों की नई पीढियाँ भी गई हैं

    ख़त लिखे जाने लगे हैं

    फ़ेसबुक पर या फिर ट्विटर पर

    कभी-कभी इंस्टाग्राम पर भी।

    हालाँकि, ख़त अब भी

    अपनापन खोजते हैं

    प्यार खोजते हैं

    हँसी-ठिठोली की बाट जोहते हैं

    इनसे महरूम होकर

    बुढ़ापे का एहसास होता है

    ख़त नहीं गुनगुना रहा है

    नव-अनुगीत

    समझ गया है वह

    इस संसार में

    कुछ भी नश्वर नहीं है

    कुछ भी स्थायी नहीं है

    उसे स्वीकार करनी होगी

    उसने जी ली है अपनी उम्र

    एक सफल और

    अर्थपूर्ण ज़िंदगी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुनील कुमार शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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