ईश्वर के रहते भी
क्यों मंदिर आती जाती
किसी श्रद्धासिक्त महिला की
राह बीच लुट जाती है इज़्ज़त
यहाँ तक कि जब-तब
मंदिर के प्रांगण के भीतर भी
क्यों कुचलकर हो जाती है
भक्तों की असमय दर्दनाक मौत अंग-भंग
बदहवास भगदड़ की जद में आकर
मंदिर की भगवत रक्षित देहरी पर ही
ईश्वर के रहते भी
क्यों जनम जनम का अपराधी
और कुकर्मी भी बना जाता है
ईश्वर के नाम
कोई भव्य दिव्य सार्वजनिक पूजनगृह
और मनचाहा ईश्वर को
बरजोरी बिठा आता है वहाँ
अपनी मनमर्जी
और उसके कुकर्मों-चाटुकर्मां का भरा घड़ा भी
इसमें क़तई नहीं आता आड़े
ईश्वर के रहते भी
क्यों चमरटोली का धर्मभीरू इसबरबा चमार
बामनटोली के भव्य मंदिर को
पास से निरखने तक की अपने मन की साध
पूरी करने की नहीं जुटा पाता है हिम्मत
और अतृप्त ही रह जाती है
उसकी यह साधारण चाह
असाधारण अलभ्य बनकर
ईश्वर के रहते भी
क्यों शैतान को पत्थर मारते मची भगदड़ में
मक्का में बार बार कई अल्लाह के बंदे
हो जाते है अल्लाह को प्यारे
और उस शैतान का बाल भी बाँका नहीं होता
और चढ़ा रह जाता है शैतानी खंभे पर वह
ईश्वर और उसके भक्तों के मुँह चिढ़ाता
ईश्वर के रहते भी
क्यों सब कुछ तो बन जाता है इंसान
पर इंसान बने रहने के लिए उसे
पड़ता है नाकों चने चबाना।
- रचनाकार : मुसाफ़िर बैठा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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