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इस वक़्त दुनिया को रुक जाना चाहिए

is waqt duniya ko ruk jana chahiye

सौरभ कुमार

सौरभ कुमार

इस वक़्त दुनिया को रुक जाना चाहिए

सौरभ कुमार

और अधिकसौरभ कुमार

    एक औरत का भयाक्रांत चेहरा

    समूची धरती का कटा-फटा पिलपिला मानचित्र है

    ऐसे वक़्त में दुनिया को रुक जाना चाहिए

    बेबस बिलखते बाप को देखते मासूम बच्चों की आँखों में

    अंधा होकर डूब सकता है चमचमाती सभ्यताओं का अश्लील सूरज

    ऐसे वक़्त में दुनिया को रुक जाना चाहिए

    धरती पर गिरी आँसू की बूँदें

    धरती पर बहती नदियों को कर देती हैं खारा

    धरती पर गिरा गोली का छर्रा

    लौटता है दाँतों के बीच अन्न के कौर के साथ

    धरती पर टपकी ख़ून की बूँदें

    मदहोश तटस्थताओं की नींद में

    घुसती हैं बनकर गाढ़ा लावा

    ऐसे वक़्त में दुनिया को रुक जाना चाहिए!

    रुक जाना चाहिए

    रोटियों और इमारतों की तामीर में हलकान हुए खुरदुरे हाथों को

    सरहदों की पहरेदारी में तैनात पाँवों को

    बाज़ारों में शोर

    कारख़ानों में धुआँ

    मुँह की तरफ़ बढ़ा हुआ निवाला हवा में!

    रुक जाना चाहिए

    गुलाब की लाली

    माथे का पसीना

    धूप की सोहबत में पकते फलों को

    वैश्विक शांति के जाली उपक्रमों

    और चमचमाती रोशनी में बजबजाती बहसों को रुक जाना चाहिए!

    दरअसल,

    धरती को अपनी धुरी पर

    और सच्चे आदमियों की धमनियों में

    रुक जाना चाहिए रक्त

    इस वक़्त!!

    महामानव होने की तमाम परिभाषाओं में लालायित अपना उल्लेख ढूँढ़ते राष्ट्रध्यक्षों को

    खोल देने चाहिए दरवाज़े और सरहदें—

    ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में मर रहे लोगों के लिए

    सभ्यतागत विकास की तमाम उपलब्धियों के बाद भी

    तलवे भर सुरक्षित ज़मीन के लिए

    दौड़ते हवाई जहाज़ों से लटके मनुष्यों के दौर में—

    कैसे सो पाएगी दुनिया दोनों ध्रुवों के बीच?

    कैसे देख पाऊँगा मैं अपने बच्चों की आँखों में?

    कैसे छू पाउँगा माँ की बूढ़ी हथेली—

    पानी का एक गिलास

    गेंदें के पीले फूल

    कैसे रोक पाऊँगा ख़ुद को फूट-फूटकर रोने से?

    कैसे लिख पाएँगे कवि प्रेम में पगी कविताएँ?

    रात भर गली में गूँजती है काबुलीवाले की आवाज़!

    करुणा की लहूलुहान पीठ पर मरहम लगाना ही इस वक़्त एकमात्र धर्म बचा है

    ईश्वर कहीं बचा है तो

    दया और मदद की गुहार लगाते गलों में है

    ऐसे वक़्त में दुनिया को रुक जाना चाहिए

    निकलना चाहिए मनुष्यों को अपने-अपने पूजाघरों से

    और बचा लेना चाहिए असहाय ईश्वरों को

    तपते रेगिस्तान में

    नुकीले काँटों के बीच।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौरभ कुमार
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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