एक
इस कथा में मृत्यु कहीं भी आ सकती है
यह इधर की कथा है।
जल की रगड़ से घिसता, हवा की थाप से रंग छोड़ता
हाथों के स्पर्श से पुराना पड़ता और फिर हौले से निकलता
ठाकुर-बाड़ी से ताम्रपात्र
—यह एक दुर्लभ दृश्य है इधर।
कहीं से फिंका आता है कोई कंकड़
और फूट जाता है कुएँ पर रखा घड़ा।
गले में सफ़ेद मफ़लर बाँधे क्यारियों के बीच मंद-मंद चलते वृद्ध
कितने सुंदर लगते हैं
मगर इधर के वृद्ध इतना खाँसते क्यों हैं
एक ही खेत के ढेले-सा सबका चेहरा
जितनी भाप थी चेहरे में सब सोख ली सूखे ने
छप्पर से टपकते पानी में घुल गया देह का नमक
काग़ज़ जवानी का ही था मगर बुढ़ापे ने लगा दिया अँगूठा
वक़्त ने मल दिया बहुत ज़्यादा परथन।
तलुवे के नीचे कुछ हिलता है
और जब तक खोल पाए पंख
लुढ़क जाता है शरीर।
उस बुढ़िया को ही देखिए जो दिन भर खखोरती रही चौर में घोंघे
सुबह उसके आँचल में पाँच के नोट बँधे थे
सरसों तेल की शीशी थी सिर के नीचे
बहुत दिनों बाद शायद पाँच रुपए का तेल लाती
भर इच्छा खाती मगर ठंड लग गई शायद
अब भी पूरा टोला पड़ोसन को गाली देता है
कि उसने राँधकर खा लिया
मरनी वाले घर का घोंघा।
वह बच्चा आधी रात उठा और चाँद की तरफ़ दूध-कटोरा के लिए बढ़ा
रास्ते में था कुआँ और वह उसी में रह गया, सुबह सब चुप थे
एक बुज़ुर्ग ने बस इतना कहा, गया टोले का इकलौता कुआँ।
वह निर्भूमि स्त्री खेतों में घूमती रहती थी बारहमासा गाती
एक दिन पीटकर मार डाली गई डायन बताकर।
उस दिन घर में सब्ज़ी भी बनी थी फिर भी
बहू ने थोड़ा अचार ले लिया
सास ने पेटही कहकर नैहर की बात चला दी
बहू सुबह पाई गई विवाह वाली साड़ी में झूलती
तड़फड़ जला दी गई चीनी और किरासन डालकर
जो सस्ते में दिया राशन वाले ने
—पुलिस आती तो दस हज़ार टानती ही
चार दिन बाद दिसावर से आया पति और अब
सारंगी लिए घूमता रहता है।
बम बनाते एक का हाथ उड़ गया था
दूसरा भाई अब लग गया है उसकी जगह
परीछन की बेटी पार साल बह गई बाढ़ में
छोटकी को भी बियाहा है उसी गाँव
उधर कोसी किनारे लड़का सस्ता मिलता है।
मैं जहाँ रहता हूँ वह महामसान है
चौदह लड़कियाँ मारी गईं पेट में फ़ोटो खिंचवाकर
और तीन महिलाएँ मरी गर्भाशय के घाव से।
दो
कौन यहाँ है और कौन नही हैं, वह क्यों है
और क्यों नहीं, यह बस रहस्य है।
हम में से बहुतों ने इसलिए लिया जन्म कि कोई मर जाए तो
उसकी जगह रहे दूसरा।
हम में से बहुतों को जीवन मृत सहोदरों की छाया-प्रति है।
हो सकता है मैं भी उन्हीं में से होऊँ।
कई को तो लोग किसी मृतक का नाम लेकर बुलाते हैं।
मृतक इतने हैं और इतने क़रीब कि लड़कियाँ साग खोंटने जाती हैं
तो मृत बहनें भी साग डालती जाती हैं उनके खोंइछे में।
कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान
वरना कैसे काट लेती है इतनी तेज़ी से।
वह बच्चा माँ की क़ब्र की मिट्टी से हर शाम पुतली बनाता है
रात को पुतली उसे दूध पिलाती है
और अब उसके पिता निश्चिंत हो गए हैं।
इधर सुना है कि वह स्त्री जो मर गई थी सौरी में
अब रात को फ़ोटो खिंचवाकर बच्ची मारने वालों
को डराती है, इसको लेकर इलाक़े में बड़ी दहशत है
और पढ़े-लिखे लोगों से मदद ली जा रही है जो कह
रहे हैं कि यह सब बकवास है और वे भी सहमत हैं
जो अमूमन पढ़े-लिखों की बातों में ढूँढ़ते हैं सियार का मल।
इस इलाक़े का सबसे बड़ा गुंडा मात्र मरे हुओं से डरता है।
एक बार उसकी दारू के बोतल में जिन्न घुस गया था
फिर ऐसी चढ़ी कि नहीं उतरी पार्टी-मीटिंग में भी
मंत्री जी ले गए हवाई जहाज़ में बिठा ओझाई करवाने।
इधर कोई खैनी मलता है तो उसमें बिछुड़े हुओं का भी हिस्सा रखता है।
एक स्त्री देर रात फेंक आती है भुना चना घर के पिछवाड़े
पति गए पंजाब फिर लौटकर नहीं आए
भुना चना फाँकते बहुत अच्छा गाते थे चैतावर।
तीन
संयोगों की लकड़ी पर इधर पालिश नहीं चढ़ी है
किसी भी खरका से उलझकर टूट सकता है सूता।
यह इधर की कथा है
इसमें मृत्यु के आगे पीछे कुछ भी तै नहीं है।
बाबूजी दुखी हैं कि मरने वाले पैसा लेते हैं
पंडिज्जी ने कहा तो कहा मगर रहने दो इस खेत को
पूजा-पाठ की सुई निकाल नहीं पाता कलेजे का हर काँटा
बाढ़ में बह तो गया मगर यहीं तो था जोड़ा मंदिर
किसी तरह बचा लो मेरे माँ-बाप के प्रेम की आख़िरी निशानी
जल रहे पुल का आख़िरी पाया
कहते रहे पिताजी मगर बिक ही गया वो भी आख़िर और
मोटर-साइकिल दी गई जीजाजी को जो ठीक-ठाक ही चल रही है
कुछ ज़्यादा धुआँ फेंकती कभी-कभार।
उस टुकड़े में हल्दी ही लगने दो हर साल
नहीं पाओगे हल्दी के पत्तों का ये हरापन किसी और खेत में
शीशम तो कोई पेड़ ही नहीं कि जब बढ़ जाए तो
बाँहों में भरकर मापते हैं मोटाई कि कितने में बिकेंगे कटने पर
बार-बार समझाते रहे मगर ब्लॉक से लाकर रोप दी गईं खूँटियाँ
फिर वे कभी नहीं गए उधर और हमने भी डाला डेरा शहर में
अब विचारते रहते हैं कि जब और बुढ़ा जाएँगे बाबूजी तो खींच लाएँगे यहीं।
एक दिन हाँफते आए दूर से ही पानी माँगते
दो घूँट पानी पीते चार साँस बोलते जाते कि जब भी जाओ दिसावर
सत्तू ले जाओ गुड़ ले जाओ, न भी ले जाओ मगर ज़रूर लेके जाओ
घर लौटने की हिम्मत हालाँकि घरमुँहा रास्ते भी रंग बदलते रहते हैं।
सच कह रहे थे रहमानी मियाँ कि सामान कितने भी करने लगे हों जगर-मगर
आज़ादी दादी की नइहर से आई पितरिहा परात की तरह ख़ाली ढन-ढन बजती है।
वो लड़का बड़ा अच्छा था बाप से भी बेहतर बजाता था बाँसुरी
ताड़ के पत्तों से बनाता था कठपुतली और हर भोज में वही जमाता था दही
पर ये कुछ भी न था काम का उस कोने में जहाँ उसने गाड़ा खंभा
एक त्योहार वाले दिन तोड़ लिया धरती से नाता कमर में बम बाँधकर।
जब से सुनी यह ख़बर छाती में घूम रहा साइकिल का चक्का
धुकधुकी थमती ही नहीं चार बार पढ़ चुका हनुमान चालीसा
तब से सोच रहा यही लगातार कि जिन्होंने छोड़े घर-दुआर
जिन पर टिकी इतनी आँखें
उन्होंने जब किया अपनी ही नाव में छेद तो किनारे बचा क्या सिर्फ़ पैसा
तो क्या यही मोल आदमी का कि ज़िंदा रहे तो पैसा गिनते-भँजाते और मरे तो दो पैसे जोड़कर।
- रचनाकार : मनोज कुमार झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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