अमृता प्रीतम की आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ का एक प्रसंग
पिता जब थे
तब कितनी छोटी थी हमारी दुनिया
पिता की बड़ी दुनिया के बीचोबीच
ऐसे महफ़ूज़
घने जंगल में जैसे गुनगुनी धूप का टुकड़ा
फिर एक दिन देखते ही देखते
धूप को खा गया जंगल
पिता थे
तो जर्जर समय भी निरापद लगता था
कुछ भी नहीं था धरती पर कल्पनातीत
फिर एक दिन अचानक
सब कुछ हो गया समय-सापेक्ष
और जीवन संशय पर पाँव धर चलने लगा।
पिता के अंतस में
एक नदी प्रवाहित होती थी
जिजीविषा और अदम्य विश्वास से भरी हुई
आप्लावित होते रहते थे उसमें
हमारे छोटे-बड़े सपने
कितना विरल होता है
व्यक्ति से व्यक्ति का अंतर्संबंध
यह तब जाना मैंने
पिता के भीतर बहती वह नदी
जब सूख गई माँ के मन में एक रोज़ अचानक
माँ के मन से गुज़रती हुई
बरामदे में पड़ी ख़ाली कुर्सी तक
फैलती है साल-दर-साल रेत की एक नदी
इस अगम नदी को माँ
तुलसी और कबीर के सहारे
पार करना चाहती है
जिनके दोहे और पद पढ़ाए थे
पिता ने मृत्यु के एक दिन पहले तक
माँ समस्त स्मृतियों से मुक्त होना चाहती है
पिता की स्मृतियों से एकात्म होते हुए...
पिता के पास कुछ किताबें थीं
उन किताबों में कुछ क़िस्से थे
फंतासियाँ थीं... और पहेलियाँ थीं
अफ़सोस लेकिन
ग़ायब थे पन्ने कुछ आख़िर के
लिखे थे जिनमें पहेलियों के हल
उन्हीं खोए हुए पन्नों की तलाश में
भटकता फिरता हूँ दोस्त!
माफ़ करना,
इसीलिए फ़ुर्सत नहीं मिलती इन दिनों।
- रचनाकार : प्रभात मिलिंद
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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