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घसियारिनि देखिसि

दूरि बिरवा की जर पर

चुपके ते बइठ चरवाहा

मन के भितरइ कुछ रहा घूरि

वह डाबर की गोली माटी ते

याक डिमुकी बनाइसि

दबे पाँव चलि कइ

पाछे ते चरवाहे पर चलाइसि

तौनि वहि के गाल पर चम्भ भइ

औरु जमि के रहि गइ,

चहला ते मुँहु भरिगा

चरवाहा सकपकाइ के रहिगा

जानउ स्वावति ते जागा

मानउ भीतर ते बाहर भागा,

अपने आपुइ आँखी उठि गइ

हेरइ, को है?

तब तकु देखिसि

देखतइ रहिगा

का कहइ- सुनइ

मुस्काइ दिहिसि

जिउ छोरि दिहिसि

बिखराइ दिहिसि

सरीरु रहिगा

मनु कहुँ बहिगा

बोलुइ फूट

घूरि-घूरि देखिसि

हँसि परा

आखिर ब्वाला

यहु का किहे?

यह तीरु काहे नहे

वह बोली—

तुइ बइठ स्वावति रहइ

कि समाधि स्यावति रहइ

वह देखु—

तोरी गाईं दूरि निकरि गईं

बड़ीं हरहँट हइँ

बहु ब्वाला—

गाईं का?

यहि गाँउ की याक याक छोकरी हरहँठ हइ,

वह बोली—

छोकरी तउ नाईं

मुलु यहि गाँउ के छोकरा बड़े बरबट हुइँ

जो बड़े छैल हइँ

वइ सब बैल हइँ,

तुइ अपनक सुधारु

दुसरेन रहइ दे।

वहु ब्वाला—

तुइ कहिसि-तउ कुछु नाईं

हम कहेन—

तउ तुइ लरइ लागि

बीनि बीनि नाउँ धरइ लागि

जरइ-बरइ लागि

वह बोली—

याक कहिहइ

तौ हजारु सुनिहइ

अच्छा पहिलै जा गाईं छिदि लाउ

फिरि लौटिके आउ

बहँस केरि बंसी बजाउ

देखु, वह देखु

हुआँ गाईं दिखती हइँ

वहु का है?

जहाँ वहु बड़ा-बड़ा, हरा-हरा

खरु है।

चरवाहु ब्वाला—

वह झाबरु हइ

तुइ नारु-नारु घूमीं

हारु-हारु घूमीं

मुलु बड़का झाबरु जानति हइ

कि प्याट मा पाँव पसारति हइ,

चलु तुहू चलु

गाईं छिदवावइ

आजु वह अकेले ते अइहइँ

बड़ी हरहँट हइँ,

हुवइँ झाबर की दाँती मा

घासइ घास हइ

कँचनु-असि दूबि

झलमल झरुआ है

तुहारउ कामु बनि जाई

एकु पंथु दुइ काज होइँ,

बहु देखु बड़कवा झाबरु

कस फइला धरती के ओर-छोर तकु,

जस असमान मा बदरन केरि घटा हइ

तइसइ पृथिवी पर यहि की छटा हइ

हुआँ पानी की चमक

और फूलन की गमक

कसि हइ, का बताई?

तनि चलि कइ देखु

हुआँ पेड़न पर पच्छी चहकति हइँ

हवा महकति हइ

वह हवा कुछ ऐसि मस्त हइ

कि हुआँ जातइ-जाति मनु लस्त-पस्त

होइ जाति हइ।

वह बोली–चलु-चलु

यह ले खुरपी

घास ते हमारि खरिया भरि दिहे

बातन की बाह पूरिउ भइ

राह पूरि होइ गइ

तालु आँख की सकल मा

हहराय, लहराय रहा

जेहि के चारिउ वार

हरी-हरी, बड़ि-बड़ी नरई

बीच मा आँखि के तारा अस सफेद पानी

मानउ पृथिवी की याक आँखि यह

याक और कहुँ।

घसियारिनि बोली—

हम आयेन तउ हियाँ पहिलेउ हन

मुला, आजु तोहरे संग

कुछु अउरुइ बात आइ

आजु हियाँ इन्द्रासनु लागइ लाग

स्वावा मनु जागइ लाग

जानी का माँगइ लाग

मनु कुछ उछरइ लाग

मानउ बँधा रहइ

छूटइ लाग।

चरवाहु ब्वाला—

देखु—

दूर तक मोती-अस पानी भरा

जेहिमा सिबिता बूड़ा परा

भीतर ते झाँकि रहा

आगे की आँकि रहा

आजु रुकु हियनइँ पर

संझा का देखे तुइ

चन्द्रमउ एहिमा बुड़की लगाइ

नहाइ

संग मा नखतउ नहइहैं

बुड़की लगइहैं।

थीर-थीर ढहनारु-अस नीर पर

चौड़ चौड़ पुरइनि के पात फइल

पातन पर

कमल के फूल फूले

रसु लइ-लइ जिनका

भँवरा हइँ भागि रहे

लागति कुछु बहे-बहे

कमल के भितरइ यइ

राति मा स्वावति हइँ

कमल इनका हियरा मा

जियरा मा

चपकाइ राखति हइँ

अपन असि भागि कहाँ?

हिय मा लगावइ कोइ,

अस यइ कमल हइँ

जस तोरी आँखी हइँ।

वह चरवाहे की पीठि पर मुक्का मारिसि

यहि पर चरवाहा

वहि का घूरि कै देखिसि

फिरि कहिसि—देखु तउ—

झाबर की दाँती सब

कुस-काँसन ते कसी है

कहुँ फालसा, फरेंदा ते फँसी हइ

झाबर के चारिउ वार

ढाख का बनु हइ

चैत का महिना हइ

हुवैं टेसुन की बस्ती मा

बसा म्वार मनु है

ढाखन के झुरमुट मा

मजइ कुछ औरु हइ

झरबेरिया के बेर हुवाँ

तोहिका आजु टेरि रहे

म्वारउ मनु फेरि रहे

देखु,

पानी के भीतर

केत्ते पडुखा नहाइँ

पडुखी नहाइँ

पानी ते उड़इँ

तउ उनके पँजन ते

पानी की बूँदइ गिरइँ

मानउ मोती झरइँ।

फिरि कहिसि—

बिना अंझा किहे

मोरि संझा रोजुइ हियाँ कटति हइ

हियाँ सँझवतिया अमिरितु बँटति हइ

हियाँ अउतइ खन म्वार मनु चंगा होइ

यह मोर गंगा हइ

हियाँ बासी मनु ताजा होइ

यहु मोरि मथुरा हइ

यह मोरि कासी हइ

यहि का पानी हमइँ

मीठा जलाउ हइ

यहु म्वार नैनियातलाउ हइ

यहु कहति-कहति

चरवाहु पानी मा घुसिगा

हाथन मा कमल का हारु बनिगा

पानी ते निकरा

वहि का गहराइ दिहिसि

आँखिन ते वहि पर

कुछु नेहु-अस नाइ दिहिसि।

वह बोली—

तुइ तउ जयमाल करइ लाग,

वहु मूँड़, झुकाइ लिहिसि

कुछु ब्वालइ नाईं।

वह बोली—

रोजु गागर ते नहाइति

महूँ आजु सागर मा नहइहउँ

जस पडुखी नहाइँ

जस पडुखा नहाइँ

दोनउ फिरि उथले मा उतरिगे

नरइ मा ल्वाटइ लाग—

प्वाटइ लाग

ल्वाटति प्वाटति गहराइ मा परिगे

दोनउ के मन बिथरिगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : घास के घरउँदे (पृष्ठ 50)
  • रचनाकार : श्यामसुंदर मिश्र ‘मधुप’
  • प्रकाशन : आत्माराम एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली
  • संस्करण : 1991

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