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निन्नानवे का फेर

ninnanwe ka pher

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

निन्नानवे का फेर

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    एक सुंदर ग्राम में था वैश्य एक धनी कहीं,

    पास उसके एक शिल्पी वास करता था वहीं।

    भोगते थे एक-सा सुख-भोग दोनों सर्वदा,

    था धनी शिल्पी तो भी मुदित रहता था सदा॥

    एक दिन उस वैश्य की गृहिणी बड़े आश्चर्य से,

    यों वचन कहने लगी निज अनुभवी प्रियवर्य से—

    “कुछ दिनों से एक शंका नाथ, मुझको हो रही,

    भेद तुम उसका बताओ सुन कथा मेरी कही॥

    यह पड़ोसी जो हमारा विदित नाम सुयोग है,

    यदपि है धनी तदपि नित भोगता बहु भोग है।

    प्रभु कृपा से हम धनी हैं और यह धन-हीन है,

    तदपि हमसे भी अधिक यह क्यों सतत् सुखलीन है?

    जब झरोखे से कभी मैं झाँकती उस ओर हूँ,

    देख कर पाती उसके मोद का कुछ छोर हूँ!

    रुचिर नाना पाक बनते नित्य उसके गेह में,

    श्रेष्ठ पट पति और पत्नी पहनते हैं देह में॥

    सुरभि सुंदर भोजनों की फैलती सब ओर है,

    नित्य सुन पड़ता तथा आनंद-सूचक शोर है।

    बात क्या है सो कुछ भी समझ में आती कभी,

    धन-रहित यह वैतनिक पाता कहाँ से सुख सभी?”

    वचन वनिता के श्रवण कर विहँस बोला अर्य यों—

    “इस ज़रा-सी बात पर होता तुम्हें आश्चर्य क्यों?

    रोज़ जो एकाध रुपया यह कमा लाता यहाँ,

    शाम को उसको उड़ा कर मत्त हो जाता यहाँ॥

    इस समय तो यह तरुण है श्रम नहीं खलता इसे,

    किंतु पूरा कष्ट देगी जरठ-निर्बलता इसे!

    प्राप्त होता द्रव्य जो कुछ नित्य यह खोता उसे,

    प्रथम जो संग्रह करता दु:ख फिर होता उसे॥

    आय के अनुसार ही व्यय नित्य करना चाहिए,

    द्रव्य संग्रह कर समय के अर्थ धरना चाहिए।

    नियम यह संपत्ति-विषयक याद जो रखता नहीं,

    दु:ख पाकर लोक-सुख का स्वाद वह चखता नहीं॥

    धन बिना संसार में कुछ काम चल सकता नहीं,

    दु:ख के दृढ़ जाल से निर्धन निकल सकता नहीं।

    हो सकता धर्म भी धन का बिना संग्रह किए,

    नित्य वित्त निमित्त सबको यत्न करना चाहिए॥

    ज्ञात है अज्ञान से कुछ गुण संचय का इसे,

    इस तरह रहे, नियम जो विदित हो व्यय का इसे।

    यदि किसी कारण यह दस पाँच दिन श्रम कर सके,

    और तो क्या, तो उदर भी यह अपना भर सके॥

    ‘आज का कल को बचावे वह पुरुषार्थी कभी,’

    इस तरह की समझ उलटी हो रही इसकी अभी।

    किंतु पीछे याद होगा भाव आटे-दाल का,

    जब अबल होकर बनेगा कवल काल कराल का॥

    आप तो यह विपद में पड़कर मरेगा ही कभी,

    पर हुए पुत्रादि तो वे भी दुखी होंगे सभी।

    सो जिसे तुमने जगत में सब प्रकार सुखी कहा,

    दु:ख के गहरे गढ़े में वह अनाड़ी गिर रहा॥”

    जान कर परिणाम यों अपने पड़ोसी का बुरा।

    वैश्य-वनिता हो गई व्याकुल तथा करुणातुरा।

    द्रवित हो जातीं हृदय में तनिक ही में नारियाँ,

    चित्त से भी मृदुल होतीं कुलवती सुकुमारियाँ॥

    वचन फिर कहने लगी वह इस तरह निज नाथ से—

    “कर रहा निश्चय अहित यह आप अपने हाथ से।

    शोचनीय भविष्य का इसको कुछ भी ध्यान है,

    सत्य ही होता नहीं केवल गुणी में ज्ञान है॥

    याद कर इसकी दशा होता मुझे है दु:ख बड़ा,

    कीजिए कुछ यत्न जो यह मोह में रहे पड़ा।

    क्या किसी विध भूल अपनी ज्ञात हो सकती इसे?

    दूसरों का दु:ख हरना है नहीं हितकर किसे?

    हो हमारा द्रव्य भी कुछ व्यय क्यों इस काम में,

    पर हो प्राणेश! इसको कष्ट अब परिणाम में।

    चार, छै, दस बूँद से घटता नहीं नद-नीर है,

    किंतु दीन विहंग की मिटती तृषा गंभीर है॥”

    मौन होकर वैश्य तब कुछ सोचने मन में लगा,

    फिर वचन बोला प्रिया से प्रेम के रस में पगा।

    “यत्न सोचा एक मैंने चित्त में इसके लिए,

    हो कदाचित् सफलता पूरी तरह उसके किए॥”

    एक पट में बाँध तब निन्नानवे रुपए लिए,

    और कह यों वचन उसने वे प्रिया को दे दिए—

    “डाल देना तुम इन्हें उसके सदन में रात को,

    है मुझे विश्वास होगी कार्य-सिद्धि प्रभात को॥”

    वैश्य-वनिता ने बहुत होकर प्रफुल्लित गात में,

    फेंक दी वह पोटली उसके यहाँ फिर रात में।

    जब सुयोग उठा सबेरे और वे रुपए मिले,

    सूर्य-दर्शन से कमल-सम प्राण तब उसके खिले॥

    किंतु जब गिन कर उन्हें वह यत्न से रखने लगा,

    देखकर निन्नानवे तब मोह से मानों जगा।

    “एक रुपया और इनमें मैं मिलाऊँगा अभी,

    और कर पूरे इन्हें सौ फिर धरूँगा मैं सभी॥”

    सोच कर वह वैतनिक इस भाँति अपने चित्त में,

    चार, छै आने सदा रखने लगा निज वित्त में।

    और जब सौ हो गए तब और भी इच्छा बढ़ी,

    मिट गई वह भ्रांति जो थी शीश पर पहले चढ़ी॥

    कुछ दिनों में छोड़कर सब धन उड़ाना नित्य का,

    द्रव्य-संचय मुख्य समझा लक्ष्य उसने कृत्य का।

    नित्य सादी चाल से चलता हुआ संसार में,

    बन चला धनवान वह रह लीन निज व्यापार में॥

    “क्या, सुरभि सुंदर भोजनों की ”फैलती अब भी सदा?”

    हँसकर प्रिया से एक दिन यों वैश्य ने पूछा यदा।

    तब देख उसकी ओर हँस बोली वधू कुछ देर में—

    “अब तो पड़ौसी पड़ गया निन्नानवे के फेर में!”

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 197)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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